भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
इस वेणु कूजन के प्रभाव से कुछ गोपांगनाओं को सचमुच ही स्मर का - काम का उदय हुआ, क्योंकि यह कूजननाद काम का मुख्य दूत है- “मन्मथस्याग्रदूतः” यह नाद मोहन मन्त्र है, अतः इसे श्रवण कर श्रीव्रजगोपिकाएँ मूर्च्छित हुईं। यह मूर्च्छा संचारी भाव है। यहाँ तो मूर्च्छा क्या, अपस्मार तक रस है। संसार के राग में तो सभी मूर्च्छित हैं, परन्तु श्यामसुन्दर मनमोहन श्रीव्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण के लोकोत्तर सुमधुर अद्भुत सौरस्य, सौगन्ध्य, सौन्दर्य सम्पन्न माधुर्य पर मोहित होकर मूर्च्छित होने का विलक्षण सौभाग्य तो माधुर्याधिष्ठात्री परमान्तरंगा श्रीवृषभानुनन्दिनी आदि कतिपय व्रजसीमन्तिनियों का ही है। अस्तु, उस परम मनोहर मोहन मन्त्र वेणुकूजन के श्रवण से मूर्च्छित होने पर श्रीकृष्ण के अनुग्रह विशेष से कुछ को सावधानता प्राप्त हुई। तब सावधान होकर उन्होंने उस कूजन की ओर अपने नेत्र और मन को लगाया। पहले वेणुकूजन का प्रयोजन उन्हें सावधान कर संकेत करना था। जब वे सावधान हो गयीं तब श्रीकृष्ण ने वेणु द्वारा गीत गाया जो स्पष्टार्थक था। यह गीत भगवदीय रस का निरूपक है अर्थात भगवान के लीला विशिष्ट तात्कालिक स्वरूप का स्पष्ट निर्देष इस वेणुगीत में हुआ। जिन गोपिकाओं ने उसे सुना, उनके अन्तःकरण में भग्वत्स्वरूप व्यक्त हुआ। उनके विविध हाव-भाव आदि व्यक्त हुए। इन सबसे वे फिर मूर्च्छित हुईं क्योंकि इस समय गीतार्थ द्वारा श्रीकृष्ण के रसात्मक साक्षात स्वरूप का उन्हें स्मरण हुआ। बारम्बार स्मरण के बाहुल्य से कुछ गोपांगनाओं को तो अन्तःकरण में प्रियतम प्राणधन श्रीकृष्ण का आलिंगन प्राप्त हुआ। फिर उनमें से ही किन्हीं ने अपनी सखियों से उसका वर्णन करना आरम्भ किया-
परन्तु उस वेणुगीत से श्यामसुन्दर मनमोहन श्रीकृष्ण का स्मरण हुआ, परन्तु उसका वर्णन करने में स्मरवेगवश वे समर्थ न हो सकीं। मन से एक बार एक ही कार्य हो सकता है, या तो वे अनुभव करें या स्मरण करें। परन्तु, अनुभव या स्मरण के साथ-साथ वर्णन नहीं हो सकता। शिव, काकभुशुण्डि, सनक, शुकदेव आदि सबकी यही स्थिति है। वे लोग या तो भगवान के परम मंगलमय दिव्य सौन्दर्य-माधुर्यादि का अनुभव स्मरण करते हैं या वर्णन किया करते हैं। यह वर्णन भी बुद्धिपूर्वक नहीं, अपितु उद्गार है। भावना करते-करते रस जब अन्तःकरण, प्राण, इन्द्रिय, रोम-रोम में भर जाता है तब वह मुख में आकर उच्छालित हो उठता है, वही उनका उद्गार है। वर्णनकाल में श्रीकृष्ण चेष्टित का स्मरण हो जाने से वर्णन ही नहीं हो सकता। किन्तु भगवान श्रीकृष्ण को तो गोपिकाओं द्वारा वर्णन कराना अभीष्ट है, क्योंकि तभी वह सुधा भगवद्भोग्या बन सकेगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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