भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
तो भी विश्व की आनन्दरूपता माया से आवृत होने “आनन्दाद्ध्येव खल्विमानि भूतानि जायन्ते, आनन्देन जातानि जीवन्ति, आनन्दं प्रयन्त्यभिसंविशन्ति।” के कारण अभिव्यक्त नहीं है- “नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमाया समावृतः।” जैसे काष्ठों में अग्नि व्यापक होते हुए भी अव्यक्त है, दाहकत्व-प्रकाशत्व रूप में व्यक्त नहीं है, परन्तु, दाहकत्व-प्रकाशकत्व विशिष्ट साक्षात व्यक्त अग्नि से उन काष्ठादि का सम्बन्ध होते ही उनमें भी अग्नि व्यक्त हो जाता है, वैसे ही समस्त विश्व आनन्दरूप-रसातमक होते हुए भी उसकी रसात्मकता अभिव्यक्त नहीं है। जब शुकादि ऐसे महापुरुषों का, जिनकी साक्षाद्भगवत्सम्बन्ध से रसात्मकता व्यक्त हो गयी है, अनुग्रह प्राप्त होता है, तब उसकी स्वाभाविकी रसात्मकता अभिव्यक्त हो जाती है। “देवो भूत्वा देवं यजेत्।” अर्थात भक्त स्वयं भगवद्रूप होकर भगवान का यजन करे, इस सिद्धान्त के अनुसार अचिन्त्य, अनन्त, परमानन्दमय निखिल रसामृतमूर्ति भगवान श्रीकृष्ण का अन्तरंग रमण उन्हीं के साथ हो सकता है जिनकी भगवदीयता, रसात्मकता अभिव्यक्त हो चुकी हो। इसीलिये जिनकी भगवदीयता, रसरूपता पहले व्यक्त नहीं थी, उनकी वह रसस्वरूपता इस वेणु कूजन से व्यक्त हुई। जहाँ वह पहले से ही व्यक्त थी, वहाँ स्मर का - स्मरण का उदय हुआ। नाद से उद्दीपन-विधया भी स्मृति हो सकती है। नाद के श्रवण से उसके उद्गम स्थल की स्मृति होनी स्वाभाविक है। संसार के समस्त प्रवाहों का स्वभाव है कि वह अपने में निपर्तित वस्तु को अपने गन्तव्य स्थान में ले जाता है। जैसे गंगा के प्रवाह में पड़ा हुआ पुष्प गंगा के गन्तव्य स्थान की ओर बह जाता है, परन्तु वेणुनाद प्रवाह का इससे विपरीत स्वभाव है। वह अपने में निपतित वस्तु को गन्तव्य स्थल की ओर न ले जाकर अपने उद्गम स्थान की ओर ले जाता है। अतः भगवान श्रीकृष्ण के मुखचन्द्र निर्गत वेणुगीत के अखण्ड प्रवाह में निपतित श्रीव्रजांगनाओं का मन उस प्रवाह के उद्गम स्थान श्यामसुन्दर व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण की ओर वह चला और मन के पीछे उनका शरीर भी बह चला। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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