भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
जब भगवान श्रीकृष्ण ने वेणुकूजन किया वंशी बजायी- तब सभी श्रवणकर्ता उससे प्रभावित हुए। क्योंकि कूजन या ध्वनि का यह स्वभाव है कि श्रोता पर कुछ-न-कुछ प्रभाव अवश्य करती हैं। विशेषतः इस वेणु कूजन के श्रवण से सबमें भगवदीयता का भाव आविर्भूत हुआ। कूजन, नाद की यह महिमा है कि जिससे यह सम्बन्धित हो, उसे भगवान का बना दे। यहाँ कूजन, रव और गति भिन्न-भिन्न हैं। क्योंकि यह भगवदधर सुधा से संवलित हैं। भगवान की अधरसुधा के सभी समान अधिकारी नहीं हैं, अतः स्वस्वाधिकारानुसार उसमें अधरसुधा वितरण के लिये वेणुवादन में भी कजनादि भेद हैं। अधरसुधा के तीन भेद हैं- 1. देवभोग्या, 2. भगवद्भोग्या, 3. सर्वभोग्या। ये तीनों सुधाएँ श्रीकृष्ण के एक ही अधर में रहती हैं। परन्तु, इनका दान उन योग्य अधिकारियों को ही होता है, सबको नहीं। यहाँ भावुकों का भाव यह है- “अधर एव लोभः” इस उक्ति के अनुसार भगवान का अधर ही साक्षात मूर्तिमान लोभ है। जैसे भगवान का मन चन्द्रमा, सूर्य नेत्र आदि हैं, वैसे ही मूर्तिमान लोभ अधर है। भाव यह है कि भगवान ने अपने अधर सुधारूप कोष का अध्यक्ष लोभ को बनाया। अध्यक्ष-भण्डारी कृपण होना चाहिये। वह जिसे जिस वस्तु का और जितने का अधिकारी समझे उसे उस वस्तु को उतना ही प्रदान करे। इसीलिये भगवान ने स्वाधरसुधा का अध्यक्ष लोभ को बनाया, जिससे वह एक ही अधर में रहने वाली तीन तरह की सुधा को अधिकारानुसार प्रदान करे। अतः यहाँ यद्यपि वेणुकूजन को व्रजस्थ सभी प्राणियों ने सुना, परन्तु उसके द्वारा वितरित होने वाली अधरसुधा की प्राप्ति श्रीवृषभानुनन्दिनी, ललिता, विशाखा आदि अधिकारिणी अन्तरंगभूता व्रजांगनाओं को ही हुई। पहले कहा जा चुका है कि वेणुछिद्र द्वारा निर्गत भगवान श्रीकृष्ण की अधरसुधा के सम्बन्ध से सब रसात्मक हो गये। यों देखें तो निखिल विश्व आनन्द रूप ही है। क्योंकि यह समस्त चराचर जगत एक अखण्ड, अनन्त, निर्विकार आनन्द से उत्पन्न हुआ, उसी में स्थित है और उसी में लीन होता है अतः आनन्द स्वरूप ही है। जैसे घट, शराव, उदंचनादि पदार्थ मृत्तिका से उत्पन्न होते हैं, उसी में स्थित होते हैं और अन्त में उसी में लीन होते हैं, अतः मृत्तिका स्वरूप ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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