भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
अतः श्रीकृष्ण का समस्त विग्रह फलात्मक है, साधन नहीं। विधिनिषेध साधन में ही हुआ करते हैं, फल में नहीं। अघासुरहनन आदि कहीं-कहीं श्रीकृष्ण में साधनता भी थी परन्तु ध्यानकाल में तो वे सुखमात्र स्वरूप होने से शुद्ध फलात्मा ही हैं। यदात्मक श्रीकृष्ण होंगे, तदात्मक ही उद्बुद्ध सम्प्रयोगात्मक-विप्रयोगात्मक उभयविध श्रृंगाररसस्वरूप भगवद्भोग्या अधरसुधा भी होनी चाहिये। अन्यान्य अंगों में साधनत्व का निवेश होने पर भी अधरसुधा में तो केवल फलात्मकता ही है। लौकिक रस तो अनुभव करते-करते कुछ काल में विरह हो जाते हैं, परन्तु इस रस की यह विशेषता है कि यह कभी विरस नहीं होता, अपितु जैसे-जैसे अधिकाधिक अनुभूत होता है, वैसे-वैसे वृद्धिगत होता है। कामिनी सम्प्रयोगादि में यह बात नहीं है, वहाँ तो कामिनी आदि में विरसता आ जाती है पर यहाँ का रस तो कभी विरस होता ही नहीं- “यह रस विरस होत नहिं कबहूँ।” हाँ, तो यह रस गोपिकाओं की अन्तरात्मा, अन्तःकरण, प्राण, इन्द्रिय, रोम-रोम में भरपूर होकर श्रीव्रजांगना के अधरपल्लव द्वारा-
इत्यादि वेणुगीत पीयूषरूप में उद्वेलित होकर अभिव्यक्त हो गये। ‘वर्हापीडं’ यह साधारण श्लोक नहीं है, किन्तु साक्षात भगवद्भोग्या अधरसुधा ही है। पीछे कहा जा चुका है कि श्रीकृष्ण के अधर में रहने वाली सुधा उन्हीं के लिये संभोग्य कैसे हो सकती है? यह रसशास्त्र के विरुद्ध है। परन्तु भगवान की उस सुधा का संभोग इष्ट है। पर यह तभी हो सकता है कि जब यह भगवद्भोग्या अधरसुधा भगवान को प्राप्त हो सकेगी। इसीलिये भगवान श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द ने उस सुधा को वेणु में पूरित कर उसके छिद्रों से व्रजांगनाओं के कर्णकुहर द्वारा उनके हृदय में प्रवष्टि किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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