भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
किन्तु जब वह व्रजांगनाओं के द्वारा वर्णित होकर उनके अधरपल्लव पर विराजमान हो, तब उसमें भगवद्भोग्यता आवे। गोपिकाएँ तो विह्वल होकर उसका वर्णन करने में असमर्थ हो रही थीं, किन्तु श्रीकृष्ण को तो वर्णन कराना अभीष्ट था। अतः उन्होंने अपनी कृपा विशेष से श्रीव्रजांगना हृदयस्थ उस सुधा को भावना द्वारा अभिवृद्ध कर उनके मुख द्वारा वर्णन व्याज से अभिव्यक्त किया अर्थात वह भगवद्भोग्या अधरसुधा वेणुगीत रूप में व्रजांगनाओं के मुखपंकज में आयी। वह वर्णन उद्गार होने से प्रयत्ननिरपेक्ष एवं बुद्धि निरपेक्ष है, अतः स्वाभाविक है। वही “वर्हापीडं नटवरवपुः” है, यही वेणुरव है- “इति वेणुरवं राजन्” अर्थात जो भगवद्भोग्या अधर-सुधा व्यक्त हुई, वह एतत् श्लोकात्मक है। यहाँ यह ध्यान रखना चाहिये कि इस श्लोक और अर्थ दोनों में अभेद है। नाम-नामी, शब्द-अर्थ में अभेद होता है। प्रियतम, प्राणधन निरतिशय निरुपाधिक परप्रेमास्पद भगवान श्रीकृष्ण का व्रजांगनाओं के साथ बाह्य और अन्तर दोनों रमण विवक्षित है। बाह्यरमण प्रिया-प्रियतम के बाह्य देह के संसर्ग से होता है किन्तु अन्तररमण तो बाह्य देहसंसर्गनिरपेक्ष प्राणों का, मन का, अन्तरात्मा का सर्वांगीण तादात्म्य से ही बन सकता है। पर श्रीगोपिकाओं से श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द का आन्तररमण तो तब हो, जब सचमुच ही श्रीकृष्ण उन गोपिकाओं के अन्तर में विराजमान हों। भावनाओं के प्राखर्य से भी भावित का साक्षात्कार होता है, पर है वहाँ भावनामय ही मूर्ति। उसके साथ होने वाले सम्प्रयोग को तात्त्विक नहीं कहा जा सकता अपितु वह भ्रमात्मक है क्योंकि वहाँ अनुभव संवाद नहीं है। स्वरूप का वर्णन होने से एक दिव्य तेजोमय तत्त्व अभिव्यक्त होता है, वही मनोमयी मूर्ति है। उस मूर्ति में रमण होता है परन्तु वह साक्षात भी है ऐसा नहीं कहा जा सकता। यह भावनामूलक मनोमयी मूर्ति है। हाँ, भगवान की मनोमयी मूर्ति की भावना भी अनन्त महिम है, इसमें कोई सन्देह नहीं। विधुरपरिभावित कामिनी के साक्षात्कार और भगवान की मंगलमयी, भावनामयी मनोमयी मूर्ति के सौन्दर्य, माधुर्य समास्वादन में बड़ा अन्तर है। पहला अनर्थ का-पतन का मूल एवं द्वितीय परम कल्याण का मूल है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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