भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
वेणुगीत
भगवान की जैसे धातुमयी, पापाणमयी, काष्ठमयी प्रतिमा होती है, वैसी ही मनोमयी प्रतिमा होती है। पाषाणादिमयी मूर्ति के अवलम्ब से जैसे शनैः-शनैः भगवदभिव्यक्ति होती है, वैसी ही मनोमयी मूर्ति के चिन्तन से भवत्साक्षात्कार होता है। विधुरपरिभावित कामिनी साक्षात्कार स्थल में कामिनी विद्यमान न होने से वह केवल भावना है, भ्रम है, किन्तु भगवान सर्वान्तरात्मा, सर्वव्यापक है, भावुकपरिभावित मनोमयी भगवन्मूर्ति की भावना के प्राखर्य से होने वाला भगवत्साक्षात्कार तात्त्विक है क्योंकि जहाँ भगवान का भावनाभावित साक्षात्कार हो रहा है वहाँ सर्वान्तरात्मा भगवान स्वयं विराजमान हैं। इसीलिये अघासुर वध प्रसंग में कहा गया है कि श्रीशुकदेव जी ने जब कहा कि द्विजमांस रुधिराशी महापापी अघासुर के मुख से दिव्य ज्योति निकलकर भगवान श्रीकृष्ण के मुख में प्रविष्ट हुई, तब यह सुनकर परीक्षित को सन्देह हुआ कि ‘यह क्या? बड़े-बड़े योगीन्द्र-मुनीन्द्रों को भी जो गति परम दुर्लभ है, वह उस दुष्ट दानव अघासुर को कैसे प्राप्त हुई? इस पर श्री शुकदेव ने कहा कि जिस अखण्ड, अनन्त, स्वप्रकाश, परमानन्द मूर्ति भगवान के श्रीअंग की केवल मनोमयी भावनामयी मूर्ति एक बार भावुक के स्वच्छ, समाहित अन्तःकरण पंकज पर आविर्भूत होकर भागवती गति-सायुज्य मुक्ति को प्रदान करती है, वही सद्घन, चिद्घन, आनन्दघन नित्य, स्वप्रकाश रूप से माया एवं मायिक प्रपंच को तिरस्कृत करने वाले भगवान श्रीकृष्ण स्वयं जिसके उदर में प्रविष्ट हुए, उसकी मुक्ति में क्या सन्देह है?
भावुक का रसिक मन भगवान को बनाता है, भक्त जैसे-जैसे मूर्ति की भावना करता है, भगवान को वैसा ही वैसा स्वरूप धारण करना पड़ता है- “यद्यद्धियात उरुगाय विभावयन्ति तत्तद्वपुः प्रणयसे सदनुग्रहाय।” साधारण मनुष्यों की कल्पना मनोराज्य है, परन्तु भावुक की कल्पना फलपर्यवसायिनी होती है। इसलिये भावना का प्राखर्य होने पर भक्तोपहृत वस्तु भगवान में उपलब्ध हो सकती है। यहाँ तर्क हो सकता है कि प्रत्यक्ष, अनुमान आदि तो प्रमाण हैं किन्तु भावना प्रमाण कोटि में परिगणित नहीं है, अतः भावनाभावित मनोमयीमूर्ति का साक्षात्कार, विधुरपरिभावित कामिनी साक्षात्कार के समान भ्रमात्मक है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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