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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीकृष्णजन्म और बालक्रीड़ा
अभिप्राय यह है कि कवीश्वरों ने अब तक नारायण के यश का ही वर्णन किया है, अतः यह उनके लिये भी अपूर्व ही है और यह नीर में उत्पन्न होने वाला भी नहीं अर्थात प्रपंच में श्रीकृष्ण का प्रादुर्भाव ही नहीं है। तरंगों ने भी इस पंकज को आहत नहीं किया है अर्थात् मायामय गुणों के तरंगों से यह असंस्पृष्ट है और आज तक किसी ने कहीं भी इस अद्भुत कमल को देखा भी नहीं है या वैकुण्ठवासियों ने भी इस तत्त्व का दर्शन नहीं किया है। अथवा श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्दकन्द के श्रीअंग का ऐसा अद्भुत नित्य नवनवायमान माधुर्य है कि भक्तगण अनादि काल से उसका आस्वादन करते हुए भी उसको प्रतिक्षण अभिनव एवं अपूर्व ही समझते हैं, वैसे रसिकजन भी सदा ही श्रीकृष्ण के सुमधुर यश का वर्णन करते हैं पर तब भी उन्हें प्रतिक्षण उसमें अपूर्वता का ही भान होता है- श्रीनन्दरानी मृदु मधुर विश्व-मोहन शिशु-रुदन को सुनकर प्रेमानन्द में चित्रलिखित-सी रह गयीं। योगमाया का प्रभाव मिट जाने पर शिशु-रुदन से आकर्षित होकर स्निग्ध व्रजयुवतीजन समीप आयीं। जैसे चन्द्रमा का अभ्युदय होते ही व्यवधानयुक्त भी (साक्षात चन्द्रिका सम्बन्ध न होने पर भी) कुमुदिनी प्रफुल्लित होती है, वैसे ही श्रीकृष्णचन्द्र के अभ्युदय मात्र से परमानन्दवती स्निग्धाओं के सुमनस (शोभन मन) प्रफुल्लित हो उठे। श्रीकृष्ण केवल श्रीयशोदा की शय्या पर ही नहीं अपितु व्यवधान होने पर भी स्निग्धों के स्वच्छ चित्त पर भी प्रतिबिम्ब की तरह स्फुरित हुए। नवनील नीरधर के समागम में चातकी के समान प्रहृष्ट होकर व्रजांगनाएँ शीघ्र ही समीप आकर रोहिणी आदि के साथ बालक को देखने लगीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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