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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीकृष्णजन्म और बालक्रीड़ा
इस तरह श्रीयोगमाया की सहायता से श्रीवसुदेव जी ने श्रीमन्नन्दराय के मंगलमय भवन में, जिसका द्वार खुला था, पहुँचकर प्रसुप्त श्रीव्रजेन्द्रगेहिनी की शय्या पर अपने सर्वस्व पुत्ररत्न किंवा अन्तरात्मा को ही लिटा दिया और कन्या-रूप में श्रीयशोदा जी से उत्पन्न योगमाया को लेकर वे अपने स्थान को लौट आये। श्रीवसुदेव के चले जाने तथा योगमाया का प्रभाव मिट जाने पर सब लोग प्रबद्ध हो गये-
श्रीवेजेन्द्रगेहिनी ने प्रबुद्ध होकर नीलोत्पलदल-श्याम मनोहर पुत्र को देखा और वे अत्यन्त हर्ष को प्राप्त हुईं। इस समय की बालकृष्ण की शोभा या छवि का कहना ही क्या है। भगवान दिव्यातिदिव्य महेन्द्र नीलमणि तथा अति दिव्य नील कमल, किंवा नील नीरधर, या मयूरपिच्छचन्द्र से कोटि गुणित सुन्दर श्यामल कोमल गंभीर एवं दीप्तिमान् हैं और अपने अमृतमय मुखचन्द्र की दिव्य छवि से अनन्त कोटि चन्द्रमाओं को लजानेवाले हैं। लोकातीत कमलदल सरीखे मनोहर नयन हैं और कल्पतरु के सुकोमल नवनल दल की मृदुता एवं मनोहरता को प्रहसन करने वाले अङ्घ्रि-पल्लव हैं। श्रीव्रजेन्द्रगेहिनी यशुमति अपने मधुरतम ललन श्रीकृष्ण को देखकर कल्पना करती हैं, क्या यह श्यामल महोमय परमतत्तव श्याममय प्रकाश-पुन्जों का साम्राज्य है, किंवा रूपरत्नाकरों की दिव्यनिधि है, किंवा लावण्यामृतमाणिक्य का परम सौभाग्य है, किंवा तत्तत् अंगावलियों का सुशोभित सिद्धान्त है। यशोदानन्दन श्रीश्यामसुन्दर के सुमधुर स्वरूप का अनुभव करके भगवद्भक्त कवीन्द्रगण भी कल्पना करते हैं। श्रीव्रजेन्द्रगेहिनी यशोदा के अंक में विराजमान श्रीकृष्ण मानों अद्भुत कुवलय अर्थात रात्रिविकासी पंकज हैं। वह पंकज भी जलीय सरोवर के साधारण पंक या क्षीरसरोवर के नवनीतमय पंक से जायमान नहीं है, किन्त पूर्णानुरागरससार सरोवर के सारमय पंक से उत्पन्न होने वाला पंकज है। यह ऐसा अलौकिक कुवलय है कि आज के भृगों ने इसका आघ्राण एवं मकरन्द पान नहीं किया। अर्थात भक्तों ने अब तक श्रीमन्नरायण के ही रूपमाधुर्य्य का आस्वादन किया, पर इन यशोदोत्संग-लालित श्रीकृष्ण का माधुय्र्यमृत पान नहीं किया और अनिलों ने अभी तक इस पंकज का सौगन्ध्य भी नहीं हरण किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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