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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीकृष्णजन्म और बालक्रीड़ा
इस तरह श्रीवसुदेव जी की स्तुति समाप्त होने पर देवकी भी महापुरुष-लक्षण-सम्पन्न पुत्र को देखकर तथा कंस से भयभीत होकर स्तुति करने लगी- जिस अव्यक्त, आद्य, निर्विकार, निर्गुण ब्रह्मज्योति को वेद निर्विशेष, निरीह तथा सत्तामात्र बतलाते हैं, वह समस्त कार्य-कारण अध्यात्म के प्रकाशक, व्यापक विशुद्ध ब्रह्म आप ही हैं। कालचक्र के वेग में समस्त प्रपंच का विलयन हो जाने पर भी एक आप ही अवशिष्ट रहते हैं। हे प्रकृति-प्रवर्तक प्रभो! यह कालचक्र भी केवल आपकी ही लीला है। अतः नाथ! मैं आपको प्रपन्न हुई हूँ। “हे नाथ! मरणधर्मा प्राणी मृत्यु-व्याल से भीत होकर पलायन करता हुआ समस्त लोकों में गया परन्तु कहीं निर्भय न हुआ। पर जब कभी वह आपकी कृपा से आपके श्रीचरणों को प्राप्त करता है, तभी स्वस्थ होकर सुख की नींद सोता है, फिर तो मृत्यु उससे बहुत दूर रहती है। हे नाथ! आप हम सबकी इस कंस से रक्षा करें और साथ ही यह भी प्रार्थना है कि यह ध्यानास्पद स्वरूप सर्वसाधारण को दृष्टिगोचर न हो, और कंस मुझमें हुए आपके जन्म को न जाने।” इस तरह नाना प्रकार से वसुदेव और देवकी का स्तवन श्रवण कर उनके पूर्वजन्म की तपस्या तथा वर-प्राप्ति की बात बताकर एवं अपने को नन्द के घर पहुँचाने का संकेत करके माता-पिता को देखते-देखते ही अपनी दिव्य योगमाया के प्रभाव से श्रीकृष्ण शिशु रूप में व्यक्त हो गये। भगवान के संकेत से ज्यों ही श्रीवसुदेव जी ने अपने शिशु को नन्द के घर पहुँचाने का मन किया, त्यों ही श्रीवसुदेव जी के चरणेां के बन्धन शिथिल हो गये और पहरेदार सो गये। वज्रमय कपाट भी खुल गये। जिस समय श्रीवसुदेव जी बालकरूप परमपुरुष को लेकर चले, नागराज श्रीशेष अपने सहस्र फणों से छाया करते हुए साथ चले और श्रीयमुना जी गाध हो गयीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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