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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीकृष्णजन्म और बालक्रीड़ा
जैसे अभ्युदित होते हुए पूर्ण चन्द्रमा को उत्कण्ठित होकर चकोरीगण देखती हैं वैसे ही व्रजांगनागण श्रीकृष्ण को सतृष्ण निर्निमेष नयनों से देखती हुई सोचती हैं कि क्या यह अद्भुत अलौकिक नीलकमलमय माल्य है, किंवा अलौकिक इन्द्रनील मणि है, अथवा विचित्रच्छवि का सुमधुर वैदूर्य है। अहो! यह बालक अनुपमेय और अज्ञेय है। इस बालक के तनु और सर्वेन्द्रियों की रचना नयनों की निर्द्वन्द्वता का विस्तार करती है। अहो! मानों इस बालक के श्रीअंग मृगमद-सौरभ तथा तमाल-दलसार से अभ्यन्जित हैं, मानो निखिल ब्रह्माण्डव्यापी लावण्यामृतसार से ही इस बालक के श्रींअग में उबटन हुआ है और निजांगतेज से ही यह नहलाया गया है। मानों निज-मुखचन्द्र से विनिःसृत कान्ति-सुधा से ही इसका अनुलेपन हुआ है, एवं मंगलमय लक्ष्मी से ही इस बालक आ अंग भूषित किया गया है। अथवा इस बालक के सुन्दर अंगों में मानों अति सुगन्धित स्नेह (तेल या प्रेम) से अभ्यंग हुआ है और सौरभ्य (विश्वव्यापी सौगन्ध्यामृतसार) से उबटन हुआ है, माधुर्यामृतसार से स्नान कराया गया है और लावण्यसार से मार्जन किया गया है। सौन्दर्यसार सर्वस्व से अनुलेपन और त्रैलोक्य-लक्ष्मी से ही इसका श्रृंगार हुआ है। अभ्यंग स्नान-मार्जन आदि से लोक में युत्किंचित स्निग्धता-मधुरता-लावण्यादि का सम्पादन होता है, यहाँ तो स्नेह-माधुर्य-लावण्य-सौन्दर्यादि सुधासार सर्वस्व से ही अभ्यंग आदि हुआ है। यह बालक मानों अभिनव नीलमणीन्द्र का अंकुर है, अथवा श्यामल तमाल का सुभग मदल पल्लव है, अथवा मानों नवाम्भोद का अति स्निग्ध कन्दल है, या त्रैलोक्य-लक्ष्मी का अत्यन्त उत्कृष्ट और सुरभित कस्तूरिका-तिलक है, किंवा सौभाग्यसंपत्ति का अति चिक्कण एवं सर्वाकर्षण-संपन्न सिद्धांजन है। क्या यह बालक सुरभित श्यामल मृगमद कर्दम है, या श्यामामृत-महोदधि के मन्थन से समुद्भूत अति स्निग्ध और मधुर नवनीतपिण्ड है, अथवा मृगमद-रस से श्यामलीकृत शुद्ध दुग्धफेनखण्ड या सौन्दर्य-माधुर्य सुधाजलनिधि का रत्न है, किंवा सुछवि युवती का ललित लोचन है। पहले तो श्रीनन्दरानी बालक के दिव्यांग में अपना प्रतिबिम्ब देखकर 'यह कौन है' ऐसी शंका से व्याकुल हो उठीं और सोचने लगीं कि “क्या प्रसव के समय मेरा रूप धरकर यह कोई योगिनी आ गयी है।” पश्चात नृसिंह मंत्र जपती हुई उससे ‘दूर हो’ ऐसा कहती हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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