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भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्रीकृष्णजन्म और बालक्रीड़ा
तत्पश्चात् दीर्घश्वास के सम्बन्ध द्वारा निजप्रतिबिम्ब मिटने पर श्रीव्रजरानी ने उस अद्भुत बालक को देखा, जिसका अंग मृगमदसार-पंक के समान अत्यन्त सुकोमल है, जिसका मुख चन्द्रचूर्णित घनान्धतम की तरह स्निग्ध श्यामल अलकावली से शोभित है और जो मानों सबके मन को आकर्षित करने के लिये ही दोनों हाथों की मुट्ठी बाँधे हुए कालिन्दी-तरंग की तरह चरण को चला रहा है। स्वयं परम कोमलांगी होती हुई भी अंक में लेने से भयभीत होती हैं कि कहीं मेरे कठोर अंग से बालक का सुकुमार शरीर पीड़ित न हो, अपने पयोधर के अग्र को उसके अधरपुट में रखकर वे पयःपान कराने लगीं। फिर व्रजपुरन्ध्रियों के शिक्षानुसार श्रीकृष्ण को गोद में लेकर मूर्त अमृतरस की तरह स्तन-रस पिलाने लगीं। स्नेह के आवेग से दुग्ध अधिक प्रस्त्रुत होकर मृदुल बिम्बाधर के प्रान्त से कपोलतल को आप्लावित करने लगा, तब श्रीव्रजरानी सादर सस्नेह सुकोमलतर आँचल से उसको पोंछने लगीं। श्रीव्रजरानी की समस्त सखियाँ बालक को देखकर प्रमुदित होती हैं और विचार करती है- “अहो! इस शिशु को शिर पर धारण करें, किंवा नयनों में धारण करें, किंवा हृदय या हृदय के मध्य में इसे बिठला लें।” फिर देखती हुई कल्पना करती हैं, मानों देदीप्यमान नीलमणि से इस बालक के सर्वांग का निर्माण हुआ है। कुरुविन्द (अरुण कान्तिवाले मणि) से बिम्बाधर, एवं पद्मराग से श्रीचरण और हस्त तथा पक्व दाड़िम-बीज के समान शिखरमणि से नखों का निर्माण हुआ है, अतः क्या यह मणिमय बालक है? पुनः बालक के श्रीअंग की कोमलता का अनुभव करके कठिन मणिमयत्त्व की कल्पना को अनुचित समझकर दूसरी कल्पना करती हैं, मानों नीलेन्दीवर से बालक के सकल अवयवों का बन्धूक से बिम्बाधर ओष्ठ का, जवाकुसुम से पाणिपाद का और प्रान्त रत्न मल्ली-कोरक से नखसमूह का निर्माण हुआ है, अतः क्या यह कुसुममय बालक है? फिर सोचती हैं कि क्या वस्तुतः अनन्तकोटि ब्रह्माण्डान्तर्गत-सौन्दर्य-माधुर्य-बिन्दु का उद्गम स्थान और अचिन्त्य अनन्त सौन्दर्य-माधुर्य-सुधासिन्धु-सार-सर्वस्व किंवा सकेलि सुषमा और शोभासार को ही लेकर किसी अद्भुत अलौकिक जगन्मोहन काम ने ही अपने सुकरकमल से इस बालक का निर्माण किया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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