भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
विभीषण-शरणागति
माँ मनाती है, गोद लेना चाहती है, स्तन पिलाना चाहती है, वह रोता हुआ आगे भागता है। वह ऐसा क्यों करता है? इसलिये कि वह स्वाभाविक ही माता पर अपना अधिकार समझता है। माता को ही अपना ‘गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी’ एवं सर्वस्व समझता है, वह भूखा रहे तो माँ का दोष, वह गिर जाय तो माँ का अपराध, वह सो न सके तो माता का अपराध और अपराध कर दण्ड खीझना तथा रूठना- क्रोध तथा अभिमान! किन्तु ऐसी भावना कि ‘भगवान मेरे हैं मेरा उन पर पूर्णाधिकार है’ बड़े उच्चकोटि के भक्तों में होती है। ऐसे भक्तों के पीछे परमानन्दरससार-सिन्धु-सर्वस्व, करुणामय, सर्व-सामर्थ्य, सर्वपद प्रभु बछड़े के पीछे स्नेहवश दौड़नेवाली गौ की भाँति दौड़ते हैं। भक्त जो इच्छा करता है, उसकी पूर्ति करते हैं। श्रीमद्वृन्दारण्य-धाम में एक महात्मा रहते थे, वे एक दिन अरण्य में घमने गये। उनकी लम्बी जटा झाड़ी में उलझ गयी, बस फिर क्या था, वे महात्मा भी अकड़ गये और कहने लगे कि ‘जिसने उलझाया, वही सुलझाये।’ अन्ततोगत्वा रसिकेन्द्र-शेखर, भक्तभावनापराधीन प्रभु पथिकरूप में प्रकट हुए और कहने लगे- ‘बाबा जी! आपकी उलझी हुई जटाओं को छुड़ा दूँ?’ बाबाजी ने कहा- ‘ना भैया। जिसने उलझाया वही सुलझायेगा।’ भगवान ने कहा- ‘मैंने ही तो उलझाया है।’ बाबाजी ने कहा- “नहीं मेरी जटाओं को तो अखिलरसामृतसिन्ध, व्रजेन्द्रनन्दन, मदन मोहन श्यामसुन्दर ने उलझाया है और वही सुलझायेंगे।” अन्त में विश्व-विमोहन मोहन, दिव्य, चिन्मय वसन-भूषण-अलंकारों से अलंकृत और सुसज्जित होकर, अखिल-सौन्दर्य-माधुर्यरसाम्बुधि, रसराज-मणि, आनन्दकन्द व्रजेन्द्रनन्दन के रूप में अवतरित हुए और सुलझाने के लिये आगे बढ़े। बाबाजी ने कहा- ‘उधर ही रहो, मुझे छूना मत।’ श्यामसुन्दर ने कहा- ‘आखिर क्या बात है, मैंने ही तो उलझाया है।’ बाबाजी ने कहा- ‘बात यही है कि श्रीमद्वृन्दारण्य-धाम में पाँच प्रकार के कृष्ण माने जाते हैं, किन्तु मैं तो नित्यनिकुन्जेश्वरी राधा के वल्लभ को ही चाहता हूँ। यदि श्रीराधा जी आकर कहें, तो मैं आपको छूने दूँ।’ राधा जी भी आयीं और कहने लगीं कि “हाँ, यही नित्यनिकुन्जेश्वर, यदुकुल नलिनदिनेश हमारे श्यामसुन्दर हैं।” तब बाबा जी ने उन्हें छूने दिया। यह है भक्तों का संकल्प। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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