भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
विभीषण-शरणागति
इसी प्रकार एक बार श्री सूरदास कुएँ में गिर पड़े और यह संकल्प कर लिया कि भगवान ही निकालेंगे तो निकलूँगा, अन्यथा नहीं। भगवान आये और अपनी विशाल भुजाओं द्वारा सूरदास जी को बाहर निकालकर जाने लगे। श्रीसूरदास जी ने अपने हाथों से भगवान के मंगलमय श्रीहस्तारविन्द को पकड़ लिया, किन्तु जिसकी शक्ति से शक्तियाँ भी शक्तिशालिनी होती हैं, उसे क्या कोई पकड़ सकता है, अथवा कुछ कर सकता है? अस्तु भगवान ने यों ही हाथों को छुड़ा लिया और जाने ले। तब सूरदास जी ने कहा -
अन्ततोगत्वा भगवान को पराजित होना पड़ा। भक्त के हृदय से आखिर भगवान जा ही कैसे सकते हैं? जैसे द्रवीभूत लाख में हरिद्रा आदि का रंग मिलाया जाय, तो करोड़ों प्रयत्न करने पर भी लाख हरिद्रा रंग को दूर नहीं कर सकती एवं रंग भी करोड़ों उपायों द्वारा लाख से वियुक्त नहीं हो सकता, वैसे ही भक्त या भगवान चाहने पर भी परस्पर वियुक्त नहीं हो सकते। अस्तु, सारांश यही है कि भक्त सत्संकल्पों द्वारा जो चाहे वह प्राप्त कर सकता है। यदि सच्चे अन्तःकरण से उसका सत्संकल्प हो, तो क्षणमात्र में वह अचिन्त्य, अनन्त गुणगणनिलयपटीयान् भगवान को पाकर कृतकृत्य हो सकता है। अस्तु, श्रीविभीषण जी अपने मन में अनेकानेक संकल्पों को करते और यह सोचते हुए कि आज मैं सबको सुख देने वाले श्रीराघवेन्द्र जी के केामल लालपादारविन्दों को देखूँगा, पूर्णतम पुरुषोत्तम श्रीमद्राघवेन्द्र रामचन्द्र प्रभु के पास जा रहा हूँ- “देखिहहुँ जाइ चरण जलजाता, अरुन मृदुल सेवक सुखदाता।” श्रीविभीषण जी मनोरथ कर रहे हैं कि अब जाकर अचिन्त्य, अद्भुत, महामहिमवैभवशाली श्रीराघवेन्द्र रामचन्द्र प्रभु के मनोहर, मंगलमय उन श्रीचरणारविन्द के दर्शन करूँगा, जो सेवकों को सुख देने वाले, योग-क्षेम वहन करने वाले हैं। अप्राप्त की प्राप्ति एवं प्राप्त वस्तु का रक्षण करना ही इन श्रीचरणों की विशेषता है। भावुकों का सिद्धान्त है कि वैसे तो भगवत्स्वरूप ही फल है, क्योंकि धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष सबका पर्यवसान आनन्द में है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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