भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
विभीषण-शरणागति
उन व्रज भक्तों की यह बात सुनते ही श्रीतुलसीदास जी ऐसे प्रेमविभोर हो गये कि उन्हें अपना भान ही न रहा और बेहोश होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। गोस्वामी जी की ऐसी दशा देखकर वे व्रजवासी घबराये और बेहोशी दूर करने के लिये तरह-तरह का उपचार करने लगे। उन्हें यह पश्चाताप होने लगा कि हमने इनके उपास्य की हीनता बतलाकर इनके हृदय को क्यों कष्ट पहुँचाया। अन्ततोगत्वा कुछ समयोपरान्त उनको होश आया। व्रजभक्तों के पूछने पर उन्होंने कहा कि ‘अभी तक तो मैं आनन्दकन्द कौशलचन्द्र श्रीमद्राघवेन्द्र जी को कौशलराजकिशोर जानकर, श्रीकौशल्या अम्बा का ललन जानकर एवं रघुराज जी के मंगलमय मनोहर गुण-गणों की ओर आकर्षित होकर ही उनकी उपासना करता था, किन्तु आज आपसे यह जानकर कि हमारे राघव जी भगवान के अवतार तो हैं, चाहे 12 कला के हों, चाहें इससे भी कम, मैं परमानन्दरसंसार समुद्र में डूब गया।’ यह है विशुद्ध प्रेम का ज्वलन्त उदाहरण। इसी प्रकार एक बार श्रीमद्वृन्दारण्यधाम में रासलीला के समय योगीन्द्रमुनीन्द्र वन्दितपादारविन्द, लीलाविहारी, वंशीधर, श्यामसुन्दर कृष्णचन्द्र, परमानन्दकन्द अन्तर्धान हो गये। उनके अन्तर्धान हो जाने से श्रीव्रजांगनाएँ शोक-विह्वल होकर एवं अपने निरतिशय, निरुपाधिक परप्रेमास्पद, प्राणधन, व्रजेन्द्रनन्दन श्यामसुन्दर के विप्रयोगजन्य तीव्र ताप से दुःखी होकर इधर-उधर भटक रही थीं और अशोक वृक्ष एवं नागेश्वर से पूछती थीं कि ‘हे तरुओ! आपने हमारे प्राण-प्यारे को इधर कहीं जाते देखा हो तो कहो। हम आपका बड़ा अनुग्रह मानेंगी।’ अभिप्राय यह कि उन्मत्त एवं शोकाकुल होकर इधर-उधर फिर रही थीं। इतने में भगवान श्रीकृष्ण उनकी प्रेमपरीक्षा लेने के लिये दिव्य, चिन्मय वसन, भूषण, अलंकार से अलंकृत, सुसज्जित होकर सौन्दर्यनिधि विष्णुरूप में प्रकट होकर उनके सामने आये। उनको देखते ही व्रजांगनाएँ सकुचा गयीं और घूँघट से अपना-अपना मुख छिपा लिया। उनके व्यवहार को देखकर मायातीत, विज्ञानानन्दघन, परमात्मा, भक्तों के प्रिय भगवान विष्णु ने कहा - ‘व्रजांगनाओ! क्यों सकुचाती हो? आओ, हमारे संग रासलीला में सम्मिलित हो, तुम्हारे श्यामसुन्दर से क्या हमारी शोभा कुछ कम है?’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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