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पूर्वरूप परित्यागपूर्वक रूपान्तरापत्ति ही परिणाम है। अतः परिणामी पदार्थ कूटस्थ रूप से नित्य कदापि नहीं हो सकते। स्थूल जगत कभी-कभी हिमालय के स्थान में समुद्र, समुद्र के स्थान में हिमालय हो जाता है। मरुस्थान में गंगा और गंगा के स्थान में मारवाड़ दीखने लगता है। संकल्प या भावना की शुद्धता से ही प्राणियों की शुद्धि और भावना की ही अपवित्रता से अपवित्रता होती है। अतः विवेकियों ने मनःकृत कर्म को ही कृत माना है-
- मनसा कृतमित्येव कृतमाहुर्मनीषिणाः।
- तेनवालिंगयते कान्ता तेनैव दुहिताऽपि च।।
मन से किय हुए कर्म को मनीषी लोग कृत समझते हैं। उसी अंग से कान्ता का आलिंगन किया जाता है, उसी से दुहिता का भी आलिंगन किया जाता है। भेद है तो केवल भावना का ही भेद है। यद्यपि कहा जाता है कि मानस से कुशल कर्मों की ही सफलता होती है, अकुशल निषिद्ध कर्मों का मानस अनुष्ठान अकिंचित्कर रहते हैं।
- कलि कर एक पुनीत प्रतापा।
- मानस पुण्य होहिं नहिं पापा।।
कलियुग का यह पुनीत प्रताप है कि इसमें मानस पुण्य कर्मों का फल होता है, पाप कर्मों का नहीं।
परन्तु इन वचनों का आशय और है- यदि मन से पाप कर्म होते रहेंगे अर्थात मानस कर्म का अभ्यास हो जायगा, तब टेहेन्द्रियादि से भी पापकर्म अवश्य ही हो जायँगे। अतः मन से सर्वदा पापकर्मों का परित्याग और अच्छे कर्मों का अनुष्ठान करना चाहिये, इससे बुरे कर्म होने का अवकाश न रहेगा। शुद्धकर्म ही शरीर से भी होने लगेगा। मानस पुण्य होता है यह कहने का प्रयोजन यही है कि प्राणों के मन से पुण्यकर्मा किया जाय, जिससे देहेन्द्रियादि से भी पुण्यकर्म होने लग जाय, और मानस पाप नहीं होता यह कहने का भी यह प्रयोजन है, अगर असावधानी से कुछ मानस पाप हो जाय, तो भी देहेन्दियादि से उन कर्मों को न होने दे। ऐसा न समझ ले कि मन से कर्म होने पर पाप हो ही गया, फिर अब शरीर से भी क्यों न कर लिया जाय। किन्तु यह समझना उचित है कि पुण्य मानस भी होता है। अतः उसका संकल्प चलावे और पाप मानस कर्म से नहीं होता अतः यदि कथंचित असावधानी से मनद्वारा बुरा कर्म हो गया, तो भी देहादि से बुरे कर्म न होने देकर बड़ी सावधानी से मन द्वारा भी बुरे कर्मों को न होने दे।
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