भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
संकल्पबल
यदि मानस कर्म करता रहेगा, तो अभ्यास बड़ जाने पर न चाहते हुए भी बुरे कर्मों को करना ही पड़ेगा। जैसे गमनजन्य वेग के बढ़ जाने पर, गमन क्रिया में स्वतन्त्रता की भी स्वतन्त्रता तिरोहित हो जाती है, उसी तरह मननजन्य वेग के बढ़़ जाने पर मनन क्रिया में स्वतन्त्र मन्ता की भी मनन में स्वाधीनता छिप जाती है।
इतना ही नहीं, किन्तु परधीनता का भी स्पष्ट अनुभव होने लगता है। इसी तरह बुरे कर्मों के संकल्पों को धाराबद्ध हो जाने पर उनका रोकना अपने वश में नहीं रहतां इसलिये अच्छे कर्मों के संकल्पों को चलाना और बुरे कर्मों के संकल्पों को रोकना परमावश्यक है।
अगर अनुष्ठान न भी हो सके, तब भी तत्संकल्प परम लाभदायक होते हैं अतः धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों से सद्भावाना हो, विश्व का कल्याण हो ऐसे संकल्पों का प्रवाह चलाना देश, समाज, विश्व एवं अपने लौकिक, पारलौकिक सर्व प्रकार के कल्याण का परम कारण है। सिद्ध पुरुषों का एक ही संकल्प पर्याप्त होता है परन्तु सर्वसाधारणों के अकेले संकल्प में ऐसा सामर्थ्य नहीं होता। अतः सामूहिक संकल्प आवश्यक है। एक ही शक्ति अकिंचित्कर होने से ही, कलि में संघशक्ति का महत्त्व वर्णित है। |
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