भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
ज्ञान और भक्ति
इस तरह भगवद्भक्ति से भगवत्कृपा और भगवान का ज्ञान होता है। ज्ञान से फिर भगवान के सहजसिद्ध पर प्रेम का प्रकट होना स्वाभाविक ही है। भक्ति को कौन कहे, भगवान के साक्षात्कार ही में संसार बन्ध मिट जाता है। इस तरह से भक्ति पक्ष से भी ज्ञानपक्ष में भगवान की महिमा अधिक समझ में आती है। हाँ, यह बात दूसरी है कि कोई भगवत्तत्त्व ज्ञान की भावना से भगवान को भक्ति करता है, कोई प्रेम से ही भगवान की भक्ति करता है। परन्तु भगवत्तत्त्व ज्ञानरूप फल दोनों ही को उसी तरह प्राप्त होता है, जैसे कोई पुण्यप्राप्त्यर्थ गंगा स्नान करता है, उसे पुण्य तो प्राप्त होता ही है, परन्तु तापादि-निवृति भी आनुषगिंकी हो जाती है। कोई तापनिवृत्ति के लिये गंगा स्नान करता है, पुण्यप्राप्ति उसे भी आनुषंगिक रूप से होती है। इसी तरह कोई ज्ञानप्राप्ति द्वारा पाप-ताप मिटाने के लिये भक्तिगंगा में स्नान करता है, उसे भी भगवत्प्रेमानन्द का लोकात्तर सुख मिलता है, और जो भगवत्प्रेमानन्द के लिये ही भक्ति करते हैं उन्हें भी ज्ञानप्राप्ति और पाप-ताप निवृत्ति एवं तन्मूलभूत ज्ञान प्राप्त होता है। इस तरह भक्त को ज्ञान प्राप्ति और मोक्ष अवश्य होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज