भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
निराकार से साकार
किसी का कहना है कि पूर्णानुरागरससार-सरोवरसमुद्भूत पंकज श्रीकृष्ण है, किसी ने कहा, नहीं, सच्चिदानन्दरससार-सरोवर से ही इस कृष्ण-कुवलय का प्राकट्य हुआ है। वह ऐसा कुवलय है कि भृगों (भक्तमनोमिलिन्दों) ने अभी तक उसका आघ्राण किया ही नहीं। चाहे ऐसा कह लें कि यद्यपि वे अनादि काल से ही उस कृष्ण के सौन्दर्य-कुवलयमधु का पान कर रहे हैं, तथापि उन्हें प्रतिदिन, प्रतिक्षण उसमें नवीनता का ही स्फुरण होता है अर्थात प्रतिक्षण ही उसमें नवीनता का ही भान होता रहता है -“तस्याङघ्रियुगं नवं नवम्” इसी तरह कवीन्द्ररूप अनिलों ने अभी तक इस कुवलय के यशःसौरभ का अपहरण नहीं किया अर्थात उन्हें भी नवीनता ही की स्फूर्ति होती है। ऊर्मी कणभरों से-सांसारिक षडूर्मियों से-यह कुवलय आहत नहीं हुआ। इतना ही क्यों, आज तक किसी ने इसे देखा भी नहीं है- “अनाघ्रतं भृंगैरनपहृतसौगन्ध्यमनिलैः,
सच्चिदानन्द परब्रह्म का सगुण, साकार रूप होता है, यह ‘केनोपनिषद्’ में भी प्रसिद्ध है। देवासुर-संग्राम में परमेश्वर के अनुग्रह से देवताओं को जय मिली, परन्तु देवताओं ने समझा कि हमारे ही परिश्रम का यह फल हुआ। भगवान ने समझ लिया कि यदि उन्हें भी गर्व हुआ तो असुरों से इन देवतओं में अन्तर ही क्या रह जायगा? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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