भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
निराकार से साकार
पति, भ्राता आदि से अवरुद्ध होने के कारण कुछ व्रजांगनाएँ मदनमोहन के वेणुनाद से आकर्षित होने पर वृन्दावनचन्द्र कृष्णचन्द्र के पास न जा सकीं। वे कृष्ण की भावना से भावित-मनस्का होकर, आँख मींचकर वहीं ध्यान करने लगीं। प्रियतम कृष्ण के दुःसह विरहजन्य तीव्रताप से उनके अशुभ कर्म विधूत हो उठे और ध्यानप्राप्त अच्युत के आश्लेष (परिरम्भण)-जन्य आनन्दोद्रेक से सम्पूर्ण शुभ कर्मों का भी फल समाप्त हो गया। अथवा उनके दुःसह, प्रेष्ठ-विरहजन्य तीव्रताप से विश्व के ही अशुभ कर्म काँप उठे और ध्यानप्राप्त अच्युत के आश्लेष से संसार के सम्पूर्ण मंगल अपने को कम जानकर दुर्बल हो गये। इस तरह सद्यःप्रक्षीणबन्धना होकर जारबुद्धि से भी उन्हीं परमात्मा को प्राप्त होकर वह व्रजांगनाएँ गुणमय पंचकोशों या तीनों देहों से मुक्त हो गयीं। भावुकों ने तो इस सगुण स्वरूप के चिन्तन को सरल, सुगम, श्यामीभूत ब्रह्म ही बतलाया है। अद्वैत सिद्धिकार का ही कहना है कि जो लोग निर्गुण, निराकार, निर्विकार ब्रह्म की उपासना, ध्यानाभ्यासवशीकृत मन से, करते हैं, वे करें, पर मेरे तो लोचन-चमत्कार के लिये वही तत्त्व प्रस्फुरित हो, जो कालिन्दी-पुलिन में श्यामतेज रहता है-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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