भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
अवतारमीमांसा
जिस तरह श्रवण-दर्शनादि क्रिया द्वारा अतीन्द्रिय इन्द्रियों का अनुमान होता है तथा जगत का कर्ता सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान रूप से अदृष्ट होने पर भी अनुमेय होता है, वैसे ही निराकार में प्रेरकता भी सिद्ध है। निराकार ही मन-देहादि का प्रेरक है। निराकार इच्छा की भी प्रवर्तकता सिद्ध है, अतः ईश्वर की प्रेरणा से वेदादिकों का भान होने में भी कोई अनुपपत्ति नहीं है। ऋषियों से भी मन्त्रों का दर्शन हो सकता है। यद्यपि साधारण जीवों में विशिष्ट ज्ञान सम्भव नहीं है, तथापि तपस्या और उपासनाओं एवं योगों की महिमा से रज और तम का प्रभाव मिट जाने से स्वभाव से ही सर्वार्थावभासनशाली चित्त में मन्त्रों का दर्शन हो सकता है। जैसे दूरवीक्षण, अणुवीक्षण आदि यन्त्रों की सहायता से दूरस्थ और सूक्ष्मतत्त्वों का ग्रहण हो सकता है, किंवा रेडियो के द्वारा दूर से दूर के शब्दों का ग्रहण बन सकता है, वैसे ही योग की महिमा से किसी रूप में, कहीं भी विद्यमान शब्दों का ग्रहण किया जा सकता है। भावना की महिमा से मन में विशिष्ट शक्ति का आविर्भाव होता है। सामान्य मन-इन्द्रियों की सहायता से ही बाह्य अर्थ का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। जैसे ईश्वर को इन्द्रिय बिना ही बाह्य-अभ्यन्तर, सभी अर्थ प्रकाशित होते हैं, वैसे ही भावना और एकाग्रता की सहायता से मन को विशिष्ट ज्ञान में सामर्थ्य प्राप्त होता है। फिर ऋषियों को तो ‘सुप्तप्रतिबुद्ध न्याय’ से पूर्वजन्म के अधीत मन्त्रों का भी दर्शन हो सकता है। इन सब दृष्टियों से विचार करने पर विदित होगा कि निर्गुण, निराकार परमेश्वर सगुण, साकार राम-कृष्ण आदि रूप में अवतार ग्रहण करते हैं और अधर्मा-भ्युत्थान मिटाकर सन्मार्गस्थ सत्पुरुषों का रक्षण करते हुए वेदशास्त्रोक्त धर्म का संस्थापन करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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