भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
गणपति-तत्त्व
आजकल कुछ ग्रन्थचुम्बक पण्डितम्मन्य पाश्चात्यों के शिष्य होकर बाह्य कुसंस्कार-दूषितान्तःकरणसुधारक श्रीगणेशतत्त्व पर विचार करने का साहस कर बैठते हैं। वे अपने गुरुओं के विपरीत भला कितना विचार कर सकते हैं? उनका कहना है कि पहले गणेश जी आर्यों के देवता नहीं थे। किन्तु एतद्देशीय अनार्यों को पराजित करने पर उनके सान्त्वनार्थ गणेश को आर्यों ने अपने देवताओं में मिला लिया है। इस ढंग के विद्वान् कुछ पुराण, कुछ वेदमन्त्र, कुछ चौपाइयों का संग्रह कर अपनी अनभिज्ञता का परिचय देते हुए ऐसे गणपतिस्वरूप का वर्णन करते हैं कि जिससे शास्त्रीय गणपति-स्वरूप समाच्छन्न हो जाता है। यद्यपि थोड़ा सा भी तत्त्वज्ञान रखने वाले पुरुष के लिये ऐसे असम्बद्धालाप हेय ही हैं, तथापि मूर्खों को तो उनसे व्यामोह होना स्वाभाविक ही है। कोई इन महानुभावों से पूछे कि गणेश नाम का कोई तत्त्व है, यह आपने कैसे जाना? पुराणादि शास्त्रों द्वारा या यत्र-तत्र गणपति की मूर्तियों को देखकर? यदि शास्त्रों से ही गणेश-तत्त्व समझा जाय, तो फिर गणेश को अनार्यों के देव कैसे कहा जाय, क्योंकि शास्त्रों से तो वे ब्रह्मादि के पूज्य पाये जाते हैं। रही दूसरी बात मूर्तियों को देखकर जानने की, यदि उसे उचित मानें, तो गणपति को देवता या पूज्य समझना, केवल मूर्खता ही है। कारण यह है कि केवल काष्ठमृत्पाषाणादि को कौन अभिज्ञजन पूज्य समझेगा? यदि कहा जाय कि अदृश्य शक्ति-विशेष का उस मूर्ति में आवाहन कर उसका पूजन किया गया है, तो भी वह विशिष्ट देवशक्ति किस प्रमाण से पहचानी या आहूत की गयी है? इसके उत्तर में यदि यह कहा जाय कि यह बात शास्त्रों से ही जानी गयी तो फिर शास्त्रों ने तो गणेश-तत्त्व को अनादि ईश्वर कहा है। अतः वे अनार्यों के देवता कैसे हुए? एक दूसरी विलक्षण बात यह है कि शास्त्रों के ही आधार पर गणेश को अनार्याभिमत देव समझना और आर्यों का कहीं बाहर से यहाँ आना, भारतवर्ष में प्राथमिक अनार्यों का निवास और अनार्यों के देवता गणेश का आर्यों द्वारा ग्रहण! भला ऐसी बेसिर-पैर की बातें अनार्य शिष्यों के सिवा और किसको सूझ सकती हैं? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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