भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
गजेन्द्र-मुक्ति
जो स्वात्मा में ही अपनी माया से अर्पित, प्रकाशित और कभी तिरोहित विश्व का साक्षीरूप से प्रकाशन करते हैं और साथ ही अविलुम्तदृक् हैं और जो आत्ममूल अर्थात स्वप्रकाश हैं, परप्रकाशचक्षु आदि से भी पर हैं अर्थात चक्षु आदि के भी प्रकाशक हैं- ‘‘चक्षुषश्चक्षुः, ज्योतिषामपि तज्योतिः तमसः परमुच्यते।’’ इत्यादि वचनों से स्पष्ट है कि भगवान ही विभिन्न प्रकाशक ज्योंतियों के भी प्रकशक ज्योति है। काल के प्रभाव से सम्पूर्ण लोक और लोकपाल जब पंचतत्त्व को पर प्राप्त हो जाते हैं, तब दुरवगाह्य, गम्भीर अनन्तपार तम ही रह जाता है, उस तम के पार विराजमान विभु है, मैं उन्हीं को नमन करता हूँ। ‘‘आदित्यवर्णस्तमसः परस्तात्’’ श्रुति कहती है कि वह भगवान आदित्यवत् सर्वभासक एवं स्वतःप्रकाश है और तम से परे है। देवता और ऋषि भी उनके पद को नहीं जानते, फिर दूसरे साधारण कौन जन्तु उन्हे जान सकते हैं? उनका जानना और कहना किसी के लिये भी सम्भव नहीं है। जैसे विभिन्न आकृतियों द्वारा विचेष्टा करते हुए नट के आक्रमणों का परिज्ञान दुष्कर है, वैसे ही भगवान के विभिन्न चरित्रों और अनुक्रमणों का भी जानना और कहना बहुत दुष्कर है। दुर्गम चरित्र वाले वह भगवान श्रीहरि मेरी रक्षा करें। जिनके समंगल पदारविन्द के दर्शन की इच्छा से विमुक्तसंग सुसाधु मुनि लोग सम्पूर्ण भूतों में आसक्त दृष्टि रखते हुए अव्रण, छिद्रा-वर्जित और अवलोकव्रत-आश्चर्यव्रत का आचरण करते हैं, वही भगवान मेरी गति हैं। उन भगवान का जन्म, कर्म, नाम, रूप, गुण, दोष, कुछ नहीं होता, तथापि लोक की उत्पत्ति, लय एवं पालन के लिये अपनी माया से जन्म, कर्म आदि को स्वीकार करते हैं। अनन्त शक्ति, परेश, परब्रह्मभगवान को नमस्कार है। जो अरूप हैं, साथ ही बहुस्वरूप है, उन आश्चर्य कर्मवाले भगवान को प्रणाम है। जो प्रकाशान्तर ही अपेक्षा न करके प्रकाशमान है, जो सर्वप्रकाशक साक्षी तथा जीव के भी नियन्ता हैं, चित्तवृत्ति एवं वाणी से जो अप्राप्य हैं, जो निपुण पुरुष शुद्ध अन्तःकारण से संन्यास के द्वारा प्रत्येक स्वरूप से प्राप्त होने वाला है जो कैवल्य के दाता हैं, निर्वाणसुखसंवित्स्वरूप हैं, उन प्रभू के लिये प्रणाम है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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