भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
गजेन्द्र-मुक्ति
पानी में दिन-रात आकृष्ट होने के कारण गजेन्द्र के मन, बल और ओज का बहुत व्यय हो गया, अतः शिथिलता आ गयी। इसके विपरीत ग्राह की शक्ति बढ़ गयी, क्योंकि ग्राह का तो जल में वर ही था, उसकी स्थिति अनुकूल थी। जब गजेन्द्र प्राण के संकट में पड़ गया और विवश हो गया, अपने को छुड़ाने में असमर्थ हो गया, तब चिरकाल ध्यान करके उसने निश्चय किया कि यह मेरे जातीय हाथी मुझ आतुर को बचा नहीं सकते, तो फिर मेरी हथिनियाँ मुझे बचा ही कैसे सकती है? यह ग्राह नहीं, विधाता का पाश है, उसमें मैं ग्रस्त हो रहा हूँ, उसी परमेश्वर की शरण जाऊँ, जो ब्रह्मादि सभी प्राणियों के एकमात्र आश्रय हैं। जो भगवान प्रचण्ड वेगवाले बलवान कालसर्प से भयभीत प्राणी की रक्षा करते हैं, मौत भी जिनसे डरकर भागती फिरती है, उसी भगवान की मै शरण जाता हूँ। श्रीशुक भगवान ने राजा परीक्षित से कहा कि ऐसा निश्चय कर और मन को समाहित करके वह गजेन्द्र पिछले जन्म के शिक्षित परम जाप्य का जप करने लगा। गजेन्द्र ने कहा- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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