भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
इष्टदेव की उपासना
ऐसे ही यही वेदान्त वेद्य शुद्ध भगवान अविद्या शक्तिप्रधान होकर प्रपंच का निर्माण करते हैं, विद्या शक्तिप्रधान होकर मोक्ष प्रदान करते हैं और अनन्त अखण्ड विशुद्ध चिति-शक्ति-रूप से सर्व दृश्य के अधिष्ठानरूप विराजमान होते हैं। वही महाकाली, महालक्ष्मी महासरस्वती आदि रूप में उपास्य होकर सर्वभक्ति-मुक्ति प्रदायक होते हैं वही विशुद्ध ब्रह्म, भूतभावन भगवान विश्वनाथ, श्रीविष्णु, नृसिंह एवं श्रीमद्राघवेन्द्र रामभद्र तथा श्रीकृष्णचन्द्र परमानन्द-कन्द-रूप में उपासित होकर सर्वसिद्धि प्रदान करते हैं। इसी विशुद्ध वैदिक धर्म का बौद्ध आदि अवैदिक एवं वैदिकाभासों द्वारा विप्लव होने पर भगवान शंकराचार्य ने अवतीर्ण होकर उसे पुनः प्रतिष्ठित किया है। श्रीविद्यारण्य प्रभृति विद्वानों ने तथा अन्यान्य प्राचीन-अर्वाचीन सन्तों ने भी इसी मत का पोषण किया है। ज्ञानेश्वर, तुकाराम, तुलसीदास ने भी इसी परम उदार सिद्धान्त का पोषण किया है। उसमें तीनों वर्णों के लिए गायत्री मुख्य उपास्य है। जिनके लिए गायत्री का अधिकार नहीं है, उन अवैदिको के लिए अवैदिकी उपासनाएँ है। जो गायत्री मन्त्र के अधिकारी त्रैवार्णिक वैदिक संस्कार सम्पन्न हों, उन्हें यदि गायत्री में परितोष न हो, तो विष्णु, शिव आदि देवताओं का विष्णु शिव आदि मन्त्रों से आराधन कर सकते हैं। वैदिक संस्कार-सम्पन्न होने के कारण इन मन्त्रों में उनका अधिकार सहज सिद्ध है। अर्थात विष्णु, शिव, सूर्य तथा शक्ति इन पंच देवताओं की, किंवा अन्य सगुण एवं निर्गुण ब्रह्म की उपासना गायत्री मन्त्र द्वारा ही पूर्ण सुसम्पन्न हो सकती है और इसके सिवा वैदिक शिव, विष्णु आदि मन्त्रों से भी ततत उपासनाएँ हो सकती हैं। इन समस्त वैदिक उपासनाओं में वर्णाश्रमानुसार श्रौत-स्मार्त्त्त धर्म का अनुष्ठान भी परमावश्यक है। वेद ने उपासना-विहीन कर्मों को स्वप्रकाश ब्रह्म की अपेक्षा स्वर्गादि तुच्छफल के देने वाले होने से अन्ध तक की प्राप्ति के कारण कहे हैं। परन्तु कर्म विहीन उपासनाओं से तो घोर अन्धतम की प्राप्ति कही गयी है; क्योंकि स्वधर्मानुष्ठान बिना इष्ट में चित्त के एकाग्रतारूप उपासना भी सम्पन्न न हो सकेगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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