भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री भगवती-तत्त्व
‘‘त्वमसि परब्रह्म महिषी।’’ उसी दृष्टि से उनका नाम ‘चण्डिका’ है। ‘‘चण्डभानुः चण्डवातः’’ इत्यादि स्थानों में इयतानवच्छिन्न असाधारण गुणशाली वस्तु में ‘चण्ड’ शब्द का प्रयोग होता है। देश-काल वस्तु परिच्छेद शून्य वस्तु परमात्मा ही है। भानु, वात आदि का विशेषण होने से वह संकुचित वृत्ति हो जाता है।। ‘चडि कोपे’ धातु से ‘चण्ड’ शब्द की निष्पत्ति है। ‘‘कस्य बिभ्यति देवाश्च कृतरोषस्य संयुगे।’’ किसको रोष उत्पन्न होने से देवताओं को भी डर होता है?
अर्थात् जिसका क्रोध और प्रसाद निष्फल होता है, उसे प्रजा उसी तरह स्वामी नहीं मानती, जिस तरह षण्ढ पुरुषों को स्त्रियाँ पति नहीं बनातीं। इसीलिये सफल उग्र क्रोध या उग्र क्रोधवाला पुरुष भी ‘चण्ड’ कहलाता है। महाभयजनक कोप ही चण्ड कहा जाता है और वह भयजनक कोप परमेश्वर का नहीं है। ‘‘ नमस्ते रुद्रमन्यवे’’ इस वचन में रुद्र के मन्यु-कोप को प्रमाण किया गया है। संसार में चण्ड से ही सब डरते हैं। स्पष्ट है कि जिसका दण्ड प्रबल होता है, उसी का शासन चलता है। सर्वसंहारक से सब डरते हैं, सर्वसंहारक मृत्यु से भी सब डरते हैं, मृत्यु भी चण्ड है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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