भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री भगवती-तत्त्व
यद्यपि रात्रि द्वारा प्रकाशस्वरूपा उषा का निराकरण असम्भव मालूम पड़ता है, तथापि यहाँ चिद्रूपा रात्रि ही परम प्रकाशरूपा है, तदपेक्षया सन्ध्या या उषा अन्धकाररूप ही है। जैसे सूर्य के प्रकट होने पर सन्ध्या मिट जाती है, वैसे ही विच्छक्ति के स्वीकार वृत्ति पर प्रतिबिम्बित होने पर अविद्या की आवरण शक्ति मिट जाती है। आवरण शक्ति के दग्ध बीज हो जाने पर प्रारब्ध क्षय के अनन्तर मूलाज्ञानरूप तम सर्वथा नष्ट हो जाता है। दोनों शक्तियों के नष्ट हो जाने पर मूलाज्ञान का भी अवशेष नहीं रहता। वह रात्रि देवता पर चिच्छक्ति हम सब पर प्रसन्न रहे, जिसकी प्राप्ति में हम सब सुखस्वरूप में वैसे स्थित होते हैं, जैसे अपने घोसले में पक्षी रात्रिवास करता है। ग्राम के आसपास सभी लोग तथा गवाश्वादि, पक्षी तथा भिन्न प्रयोजन से चलने वाले पथिक एवं श्येन आदि उस रात्रि में प्रविष्ट होकर सुख से स्थित होते हैं। दिन के संचार से भ्रान्त प्राणियों को यह रात्रि ही सुख पहुँचाती है, उस समय सब लोग विश्राम करने लगते हैं। सारांश यह है कि जो प्राणी भुवनेश्वरी के नाम तक से भी परिचित नहीं है, वे भी करुणामयी परा चिच्छक्ति अम्बा की करुणा से ही उसके अंक में जाकर सुख से उसी तरह सोते हैं। जिस तरह मूढ़ बालक माता की करुणा से स्वस्थ सोते हैं। ऐसी करूणामयी यह चिच्छक्ति है। हे ऊर्म्ये! रात्रिदेवी! चिच्छक्ते! आप परम दयामयी हैं, अतः हमारे कृत्यों की ओर न देखकर हिंसा करने वाले मारक पापरूप वृक (भेडिया) और नानावासनारूपी वृकी को हमसे पृथक् कर दो और चित्तवित्त के अपहारक कामादि दोषों को भी हमसे हटा दो और हमारे लिये आप सुखेन तरणी या और क्षेमकरी हो। सम्पूर्ण वस्तुओं में फैले हुए कृष्णवर्ण स्पष्ट अज्ञान हमको घेरे हुए है। है उषोदेवते! आप ऋण के समान उस अज्ञान को दूर कर दो। जैसे अपने स्तोताओं का ऋण आप दूर करती हैं, वैसे ही हमारे अज्ञान को दूर करें। हे रात्रिदेवते! चिच्छक्ते! कामधेनु के समान सर्वाभीष्टदायिनी आपको प्राप्त करके स्तुति-जपादि से अभिमुख करता हूँ। आप प्रकाशरूप परमात्मा की पुत्री हैं।’’ परमात्मा से ही अन्यत्र चैतन्य शक्ति की अभिव्यक्ति होती है, इस विवक्षा से भगवती को दिवो-दुहिता कहा गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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