भक्ति सुधा -करपात्री महाराज
श्री भगवती-तत्त्व
अर्थात परमेश्वर के डर से वायु चलता है, भय से सूर्य उदित होता है, भय से अग्नि और इन्द्र भी अपना-अपना काम करते हैं। सर्वभय कारण मृत्यु भी जिससे डरता है, वही भगवान परमात्मा है। उसको मृत्यु का भी मृत्यु, काल का भी काल या महाकाल किंवा चण्ड कहा जा सकता है, वही सर्वसंहारक है। उससे भिन्न सब सहार्य कोटि में आ जाता है। उत्पादक, पालक ब्रह्मा, विष्णु आदि उसके स्वरूप ही इसी को एकोन सर्वसंहारक कहना पड़ेगा। इसीलिये जिसका विश्व, वही उसका उत्पादक, वही पालक और वही सहारक है। एकेश्वरवाद सर्वत्र मान्य है ही, उसी का महाद्भय बज्ररूप भी कहा गया है। ‘‘महद्भयं बज्रमुद्यतम्’’ जैसे उद्यत बज्र के डर भृत्य लोग तत्परता से काम करते है, वैसे ही परमात्मा के डर से सूर्य, इन्द्र, चन्द्र आदि सावधानी से अपने-अपने कार्य में संग्लन होते हैं। उसी चण्ड की स्वरूपभूता शक्ति पत्नि चण्डिका है। जैसे परमेश्सवर के ही घोर रूप से पृथक शान्त रूप भी है ‘‘घोरान्या शिवान्या’’ वैसे ही भगवती के भी उग्र और शान्त दोनों ही रूप हैं। कुछ लोगों का कहना है कि एक ही परब्रह्म माया से धर्मी और धर्म दो रूप में प्रकट होता है। सृष्टि के आरम्भ में जो ‘‘तदैक्षत बहुस्यां प्रजायेय’’, ‘‘सोऽकायत’’, ‘‘तत्पोऽकुरुत’’ इत्यादि से ज्ञान, इच्छा और क्रिया का श्रवण है, यही तीनों ब्रह्म के धर्म हैं। यह सब धर्मीरूप ब्रह्म से अभिन्न ही हैं, क्योंकि श्रुति ने ही इन्हें स्वाभाविकी कहा है। ‘‘स्वाभाविकी ज्ञानवलक्रिया च।’’ यहाँ ‘बल’ से इच्छा का ग्रहण समझना चाहिये। इस धर्म को ही शक्ति कहा जाता है। तथा च समष्टि ज्ञानेक्ष्छाक्रियारूप ब्रह्मधर्मरूपा शक्ति ही चण्डी है, यही महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती है। कार्यवशात् इसी का अनेक रूप में प्राकट्य होता है। वस्तुतस्तु उसी चण्डरूप परमात्मा में ही पुंस्त्तव, स्त्रीत्व भक्त भावना के अनुसार है। पुस्त्वविवक्षा से वही महारुद्र आदि शब्दों से, स्त्रीत्वविवक्षा से वही चण्डी, दुर्गा आदि शब्दों से व्यवहृत होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज