नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
9. मैया यशोदा-सीमन्तन
देवता-चतुर्मुख, वज्रधर आदि भी मुझे 'माँ' कहकर वन्दना कर जाते हैं और जी करता है कि उन्हें आशीर्वाद दे दूँ। छि:! इतना अहंकार कहाँ से आ गया मेरे मन में? यह घड़ी-घड़ी की देवताओं की, दिव्य मुनियों की वन्दना, स्तुति मुझे अहंकारी बना रही है; किंतु ये लोग मेरी मानेंगे। सुरांगनायें ही नहीं सुनतीं तो ये कैसे सुनेंगे। यह क्या है? मैं देखती हूँ कि कहीं पद रखती हूँ तो वहाँ पृथ्वी में पद्म प्रकट हो जाता है- विकच सुन्दर पद्म और पद उठाते ही अदृश्य हो जाता है। कोई अदृश्य देवता अथवा ये पृथ्वीदेवी ही मुझे अब भूमि पर पद भी नहीं रखने देती हैं। मैं गायों की सेविका, गोष्ठ की सम्हाल करने वाली इतनी सुकमारी कब से हो गयी? मैंने तो शैशव में भी उल्लासपूर्वक गोबर उठाया है। कुछ भी सोचूँ, कुछ भी कहूँ, कोई मेरी नहीं सुनेगा। रोहिणी जीजी ही नहीं सुनतीं तो सुर, सुरांगनायें क्यों सुनने लगीं। जीजी कहती हैं- 'अन्तर्वत्नी होकर नारी सेव्या हो जाती है। उसे चुपचाप सेवा लेना चाहिए। माता का गौरव विश्व में सबसे महान है।' जैसे मैं ही एक माता बनने वाली नयी हुई हूँ; किंतु भगवती पूर्णमासी तो पता नहीं क्या-क्या कह जाती हैं। ऐसा कौन आनेवाला है जो सबका ही स्तोतव्य, सेव्य और पता नहीं क्या है। मुझे तो जीजी का यह मौनी दाऊ सबसे सुन्दर, सबसे प्रिय लगता है। अब यह अकेले आकाश की ओर देखते बैठा या पलने में पड़ा नहीं रहता। अब तो मेरे अंक से उतरना ही नहीं चाहता। पता नहीं, क्या देखता है- प्राय: मेरे मुख की ओर ही देखता रहता है अथवा लेटूँ तो मेरे वक्ष पर मस्तक रखकर सो जाता है। |
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