नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
9. मैया यशोदा-सीमन्तन
जीजी गोकुल आयीं तो मधुमंगल ने कहा- 'मेरा दादा माँ लायी है।' दाऊ के जन्म के पीछे कहने लगा- 'मैया! मेरा दादा आ गया। अब मेरा सखा आवेगा।' आजकल यह आता है तो मेरे चारों और घूम-घूकर नाचता है, कूदता है, ताली बजाता है- 'मेरा सखा आनेवाला है! मेरा सखा आ रहा है।' अब तो यह अनेक बार मोदक और माखन, जो इसको अत्यन्त प्रिय हैं, उनके लिए भी मुख बिचका लेता है- 'सखा के साथ खाऊँगा!' जैसे इसका सखा आते ही खाने भी लगेगा। यह तो है ही आनन्दमूर्ति। यह आ जाता है तो दाऊ भी प्रसन्न लगने लगता है। इसके सामने तो रोता भी हँसने को विवश हो जाता है। इसका सखा-इस अवधूत मधुमंगल का वह आनेवाला सखा है या सखी, यही कहाँ पता है। यह तो सखा की धुन लगाये है। भगवती पूर्णमासी भी कहती हैं और महर तो मुझसे उनके स्पर्श करने के उस दिन के पीछे ही पूछने लगे। वे कहते हैं- कोई बहुत सुन्दर नीलमेघ सुकुमार शिशु मेरी क्रोड़ी में मेरे स्तनों से मुख लगाये उनकी ओर देखता उन्हें दीखता है। अवश्य दीखता होगा उन्हें; क्योंकि दीखता तो यह मुझे भी है; किंतु बालक है या बालिका? नीलसुन्दर है या तप्तकाञ्चन गौर? मुझे स्वप्न में-जागरण में भी अनेक बार दीखता है। कमलदल विशाल लोचन, घुँघराले बालों से घिरा सलोना मुख, इन्दीवरसुन्दर, सौन्दर्यघन सुकुमार मेरे अंक में आने को दोनों कर उठाता है। मैं अनेक बार उसे उठाने को अपने हाथ उठाती हूँ और चौंक जाती हूँ। मैं चौंकती हूँ और तभी देखती हूँ कि एक तप्तकाञ्चन गौर, वैसे ही सुन्दर नेत्र, सुन्दर सुकुमार मुख, सघन घुँघराले केश से मण्डित मस्तक तनिक हिलाती, मुस्कराती बालिका आज जाती है मेरे अंक में और वह तो मानो चपला ही हो। आती है ज्योति-किरण के समान और अदृश्य हो जाती है। उस मेघश्याम शिशु को तो मैं भली प्रकार देख भी पाती हूँ; किंतु यह बालिका-इसका तो पूरा मुख देखूँ-देखूँ कि यह अदृश्य हो जाती है। यह जाती है तो मुझे बाह्य संज्ञा दे जाती है। जैसे यह मुझे सावधान-सचेत करने ही आती है। लेकिन यह आती है- वह शिशु आता है तो यह उससे सटी ही आती है। वह शिशु है या यह बालिका ही है। दोनों हैं या मेरा मतिभ्रम है- एक ही है। पता नहीं शिशु या बालिका। |
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