नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
70. बुध-विप्र-पत्नियाँ
ललित त्रिभंग खड़े हैं श्रीनन्दनन्दन। पीत कछनी, नीलाम्बर पटुका, भद्र के कन्धे पर दक्षिण भुजा है और उसी कर में मुरली है। हरित दूर्वा पर विकच सरोज जैसे चारु चरण मणि-नूपुर भूषित, घुटनों से नीचे तक लटकती वनमाला, पीताम्बर की कछनी पर रत्न-मेखला, गम्भीर नाभि, पल्लव के समान उदर, पतली कटि, विशाल वक्ष पर श्रीवत्स-चिह्न, कम्बु-कण्ठ में कौस्तुभ, प्रफुल्ल पद्ममुख, पतले अरुण अधर, अतली सुमन सरिस नासिका, बड़े-बड़े लोचन, गोरोचन तिलक-भूषित भाल, कपोल-पल्ली पर चमकते चारु कर्ण-कुण्डल, घुँघराली काली कोमल सघन अलकें सुमनों से सज्जीं और ऊपर लहराता मयूरपिच्छ। वामकर में लीला-कमल लिये नचाते मन्द-मन्द मुस्कराते, नेत्रों में अनन्त प्रेमपूर लिये देखते ये भुवनमोहन! ब्राह्मणों की पत्नियों ने यह छटा देखी और उनके पद जहाँ के तहाँ स्थिर हो गये। अपलक दृग, सम्पूर्ण शरीर रोमाञ्च-कण्टकित कदम्ब-पुष्प समान, रोम-रोम से बहती स्वेदधारा से आर्द्रवस्त्र, अजस्त्र अश्रुधारा भीगते कपोल-वक्ष। सब निःस्पद! निःशब्द स्थिर रह गयीं। 'महाभागा विप्रपत्नियों! आप सबका स्वागत।' मेघ-गम्भीर स्वर पड़ा श्रवणों में जैसे सुधाधार हृदय तक सिञ्चित करती चली गयी। 'आप सब मेरे स्नेहवश स्वयं पधारीं! आभारी हुआ आपका।' अब सबमें इस स्वर ने चेतना दी। सब आगे आयीं और सादर अपने-अपने थाल सम्मुख झुककर धर दिये। अञ्जलि बाँधकर सब खड़ी हो गयीं। एकटक इस रूपराशि को देखने लगीं। 'अब आप सब लौटें।' व्रजेन्द्रनन्दन बहुत मधुर स्वर में बोले- 'आप सबके पति-पुत्र-भाई आपकी प्रतीक्षा करते होंगे। वे यज्ञदीक्षित हैं। आपके साथ हुए बिना उनका यज्ञ-कर्म चल नहीं सकता। अभी उन्हें मध्याह्न-भोजन करना है। जहाँ तक मेरी बात है, मुझमें प्रीति होना प्राणी का परम मंगल है; किंतु समीप रहकर वैसा प्रेम नहीं होता जैसे दूर रहकर। स्त्रियों का मन अनुरागपूर्ण रहता है, अतः आप सब लौटें।' 'आपको ऐसा नहीं करना चाहिए!' अत्यन्त कातर कण्ड से ब्राह्मण-पत्नियों ने कहा- 'आप करुणानिधान हो, अशरण-शरण हो। दीनों पर कृपा करते हो। हम सब अब तो आपके श्रीचरणों में आ पड़ी हैं, हमें आश्रय अब आप ही दे सकते हैं। हम अपने पति-पुत्र-भाई आदि ब्राह्मणों को जानती हैं। वे बहुत क्रोधी हैं। उनमें-से कोइ अब हमें स्वीकार नहीं करेंगे और पति-ग्रह से पतित्यक्ता को पिता एवं किसी सम्बन्धी के यहाँ स्थान नहीं होता। अब आप आश्रय दो सर्वेश!' 'ऐसा नहीं है! आप सब भय चिन्ता त्याग दें!' श्रीकृष्णचन्द्र के स्वर में अतिशय गम्भीर्य आ गया- 'मेरे समीप आने वाले को-मेरी ओर चलने वाले को भी सब लोक-लोकपाल सादर सम्मानित करते हैं। आप सबके स्वजन रुष्ट होना तो दूर, आदरपूर्वक आपको अपनावेंगे। अपना अहोभाग्य मानेंगे आपको पाकर।' |
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज