नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
70. बुध-विप्र-पत्नियाँ
श्रुति में दो ही तो मार्ग हैं- सबको 'ओम' करो। सबको परम ब्रह्म मानो और स्वीकृति देते चलो अथवा सबका 'नेति-नेति' करके निषेध कर दो। दोनों से तटस्थ रहकर ये मन्दगति उभय भ्रष्ट हो गये। अतिथि- श्रीव्रजेन्द्रनन्दन ने सखा अतिथि होकर लौट गये, अब कौन-सा पुण्य शेष रह गया इनके समीप। 'हुं! अब हम वैदिक चतुर्वेदी ब्राह्मणों को श्रद्धा करने के लिये ये ग्वालों के लड़के ही रह गये!' बालकों के चले जाने पर एक तरुण चतुर्वेदी ने सिर उठाया और गर्व से, तिरस्कारपूर्वक बोला। मुझे बहुत क्रोध आया। श्रीकृष्ण अपने गोधन के साथ समीप न होते, उनको कष्ट होने की आशंका न होती तो मैं इन वेदज्ञाभिमानी ब्राह्मणों को बता देना कि बुध का क्रोध कैसे बवण्डर उठा सकता है। इनकी यज्ञशाला का एक तृण तो में रहने नहीं देता। ये यज्ञ कर लेते मेरे स्नेहभाजन इन बालकों को निराश लौटाकर? लेकिन मुझे इन बालकों को दूर चले जाने तक प्रतीक्षा करनी चाहिए। इन ब्राह्मणों का वायु-बन्धन मन्त्रबल मैं देख लूँगा। बालक निराश लौटे। उन्होंने अपने सखा को उलाहना दिया- 'तूने हमें व्यर्थ दौड़ा दिया, वे ब्राह्मण तो बोलते ही नहीं। सब मौन भी होते तो बात थी, वे तो बधिर भी बन गये है।' 'भैया, भूल मुझसे ही हो गयी। क्षमा करो सब और एक बार चले जाओ!' श्यामसुन्दर ने बहुत स्नेह, बहुत अनुरोध स्वर में भरकर कहा- 'इस बार उन ब्राह्मणों से बचकर उनकी पत्नियों के समीप जाकर मेरा नाम लो। वे सब मुझसे स्नेह करती हैं। वे अवश्य तुम्हें बहुत-सा अन्न देंगी।' 'तू साथ चल!' एक ने कह दिया। 'मुझसे तो दो पद भी नहीं चला जायगा।' श्याम ने ऐसा मुख बनाया कि बालकों के नेत्र भर आये। उनका यह सुकुमार सखा इतना भूखा है? इसके लिये भोजन तो लाना ही पड़ेगा। दूसरी बात इस समय सोची नहीं जा सकती।' |
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