नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
69. भगवती कात्यायनी-चीर-हरण
असूया का लेश भी किसी-के अन्तःकरण में उदित नहीं हुआ। लड़कियों ने दोनों हाथ जोड़कर, अञ्जलि मस्तक से लगायी और सब झुक गयीं। इस समय तो अशेष कर्मसाक्षी भगवान आदित्य को और इन प्रत्यक्ष कदम्बाधिरूढ़ श्रीकृष्णचन्द्र को साथ ही प्रणाम करना था। एक साथ पृथक-पृथक सबके ऊपर उनकी साड़ियाँ और उत्तरीय गिरे। किसी का भी वस्त्र न भूमि पर गिरा, न परिवर्तित हुआ। सबके वस्त्र जैसे श्रीनन्दनन्दन पहिले से पहिचानते हों। जो अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड के असंख्य जीवों को पहिचानते हैं, सबका संचालन करते हैं, वे अपने से अभिन्न इन अपनी ही अंगभूता बालिकाओं के वस्त्र क्यों नहीं पहिचानेंगे। बालक सब गम्भीर हो गये। सबका ताली बजाना, हँसना समाप्त हो गया था। 'उनका सखा इतना उदार है कि वह यहाँ इन लड़कियों को छकाने नहीं, इनके व्रत की बाधा, इनकी पूजा में हुए प्रमाद के दोष को दूर करने आया था!' सब प्रशंसा की दृष्टि से श्रीकृष्ण की ओर देख रहे थे। उनमें-से एक ने भी लड़कियों की नग्नता की ओर देखा ही नहीं। बालिकाओं ने अपने वस्त्र शीघ्रतापूर्वक पहिने। सब वस्त्र पहिनकर सिर झुकाकर सलज्ज खड़ी हो गयीं। सबके मुख लज्जा से अत्यन्त लाल। सबके मन में एक ही अभिलाषा- 'ये अपने चरण स्पर्श कर लेने देते।' 'मैं तुम सबकी बात समझता हूँ।' वृक्ष से उतरकर श्रीकृष्णचन्द्र सम्मुख समीप आ खड़े हुए- 'तुम सबने देवी महामाया कात्यायनी की पूजा क्यों की है, मुझे पता है। लगभग एक वर्ष धैर्य रखो। अगले वर्ष शरद ऋतु की रात्रियों में मैं तुम सबके साथ रासक्रीड़ा करूँगा। तुम सबकी अभिलाषा पूर्ण कर दूँगा।' वरदान तो जो समर्थ थे, उन्होंने दे दिया। वे वरदान देकर सखाओं के साथ वहाँ से वन में गोचारण करने चले गये। बालिकाओं ने आज कृतज्ञता-ज्ञापन रूप में मेरी अन्तिम पूजा की। मैंने भी आज ही पूरे उत्साह से उनकी पूजा स्वीकार की। |
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