नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
69. भगवती कात्यायनी-चीर-हरण
सब बालिकाएँ परस्पर देखकर हँस पड़ीं। बालकों ने भी ताली बजायी और हँसे। केवल भद्र ने पुकारा- 'कनूँ! दे भी दे इनके वस्त्र। देख तो कितने लाल-लाल मुख हो गये हैं इन बेचारियों के। सब काँप रही हैं।' भद्र को क्रोध आ गया कि उसकी बात कोई सुनता क्यों नहीं। वह अपना लकुट उठाकर गायों की ओर चल पड़ा। उसे लगा कि श्रीदाम, सुबल निष्ठुर हैं। इन्हें अपनी नन्हीं सुकुमार बहिन पर भी दया नहीं आती। 'श्यामसुन्दर! सब तुम्हारी व्रज में बहुत प्रशन्सा करते हैं।' ललिता ने बहुत मधुर स्वर में कहा- 'हम सब तो तुम्हारी दासियाँ है। तुम आज्ञा दोगे, वह करेंगी ही। अब हमारे वस्त्र दे दो। हम शीत से काँप रही हैं।' 'हमारे वस्त्र दो, नहीं हम जाकर व्रजराज से कहेंगी।' चन्द्रावली ने धमकी दी। 'तुम सबको जिससे कहना हो, जाकर कहो।' हँसकर कह दिया। 'पहिले पानी से निकलो और ऐसी ही नंगी बाबा के पास तक दौड़ती जाओ।' तोक ताली बजाकर हँसा। 'तुम सब मेरी दासियाँ हो और तुम्हें मेरा कहना करना है तो जल से निकलकर यहाँ आओ!' इस बार स्वर गम्भीर बना लिया वनमाली ने। बालिकाएँ परस्पर कुछ कहें, इतना भी समय उन्हें नहीं मिला। सबसे पहिले सबसे भोली कीर्तिकुमारी अपने दोनों करों से अपने अंग छिपाकर मस्तक झुकाये-दृष्टि नीचे किये जल से निकलीं और कदम्ब के नीचे जा खड़ी हुई। उनके निकलते ही सब उसी प्रकार निकलीं। 'तुम सबने नंगी होकर जल में स्नान किया, यह वरुण देवता का अपमान हुआ। श्रीकृष्णचन्द्र ने यह कहा तो एक साथ लड़कियों के नेत्र भर आये। उन्हें लगा कि इसी दोष से अब तक देवी कात्यायनी ने उन्हें दर्शन नहीं दिया। सबके हृदय धड़कने लगे- 'हमारी पूजा, हमारा व्रत इस दोष से विफल हो गया?' 'इस दोष को नष्ट करने के लिये ये भगवान आदित्य जो उग रहे हैं, इनको अञ्जलि बाँधकर मस्तक पर लगाकर प्रणाम करो और फिर अपने वस्त्र लो।' श्रीकृष्णचन्द्र ने तत्काल प्रायश्चित्त निर्देश किया। |
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