[देखता हूँ इस पुकार का मैं सत्य अर्थ-
प्राणमय इन्हें? छिः! कल्पना कनिष्ट-व्यर्थ।
सब चाहते हैं पशु और पशुपाल भी।
राम-श्याम सकुशल हैं- होवे हमें कुछ भी।]
अरुण हो गये नेत्र सहसा बलराम के-
क्षण में अनर्थ होता; किंतु कर श्याम के-
स्कन्ध पड़े, सहसा पुकारते व्रजचन्द-
'मित्रो सब शीघ्र करो अपने-अपने नेत्र बन्द!'
कर लिया नेत्र सबने बन्द, हलधर से हौले-
स्कन्ध पर कर धरे, धीरे से बोले-
'दादा! तू केवल देख' पंकज-मुख दिया खोल।
वामकर इंगित-गये आसुराग्नि पद डोल।
[मैंने प्रलय की प्रक्रिया निहारी।
कैसे कार्य सृष्टि लीन कारण में सारी।]
[प्रबल झंझावात जैसे सहसा समेटे मेघ]
बलात् सिमट गयीं लपटें- मैं चकित देख।
पी लिया समस्त अग्नि तापत्रय-हारी ने।
[पी लिया हलाहल था जैसे त्रिपुरारी ने।]
चारों ओर महामंजुवन भस्ममात्र।
केवल मध्य पशुओं से कुछ दूर अवशेष-
[दीर्घ रुग्ण का हो ज्यों कंकाल-मात्र शेषगात्र]
'इतना पर्याप्त नहीं- प्यासे पशु जल दूर।
सखा सब अब तक हो गये श्रान्त भरपूर!'
उठी दृष्टि ऊपर-हाथ जोड़ा योगमाया ने।
निखिल महेश्वरी भगवती परापाया ने[1]।।