सूखा अपार मुंजवन, ज्वाला उठती।
घेरकर चारों ओर से हैं बढ़ी घिरती।
सहसा पशुओं ने किया क्रन्दन लिया घेर-
बालकों को मध्य में करके रहे कातर हेर।
बालकों ने भी विपत्ति को लिया भाँप।
राम-कृष्ण को कर मध्य देह गये सबके कांप।
[धन्य प्रेम पशुओं, का पशुपालन बालों का
पहिले भस्म हम होंगे दृढ़ निश्चय ग्वालों का।
किंतु रही लपट दूर ताप भी लगा कहीं।
मिट जायगी मर्यादा सृष्टि की सदा को ही।
अग्नि मिट जायँगे - अंगिरा मरेगा।
नहीं, इस आसुर से ब्रह्मपुत्र क्या डरेगा?
शाप दे दूँगा इसे सौ धनुष दूर पर-
'हिम हो जा!' कंस लेगा क्या मेरा कर!]
बढ़ा आ रहा है दावाग्नि यहाँ चारों ओर।
रुई-सा मंजु-वन जलता जाता है घोर।
[फुंकार छोड़ते ज्यों महासर्प आाते हों]
लपटें सनसनाती हैं, [वृषभ ज्यों जाते हों]
'बचा लो! बचा लो! हमें दाऊ! कन्हाई।
केवल तुम्हारे हम, आश्रित तब भाई।
गोपाल! गोपाल! गायें बचा लो!
अपनों को कृष्णचन्द्र अबकी बचा लो!'
आर्तस्वर गोपबाल एक साथ बोले।
क्रन्दन पशु संग-संग - देह नहीं डोले।