भूमि पर देखता चलता भद्र आगे।
सहसा समाप्त वन आगे मंजु वन-घोर।
ग्रीष्म तप्त मूँजही स्वर्णवर्ण चारों ओर।
भद्र रुका, सब रुके- 'देख कनूँ कितनी,
मूँज मध्य हिलती हैं, सब क्या इतनी?
अपने पशु इसी में हैं, मार्ग नहीं पाते हैं।
थोड़े से घेरे में घूम-घूम आते हैं।
कर ले विश्वास उनको पुकार तू।
बाहर ही बैठ थका होगा, न हार तू।'
'कामदा! कपिला! कृष्णा! आनन्द! अरुणा!
नन्दा! धर्म! गौरव! कुमुद! कर्बुरा! तरुणा।'
भद्र कुछ कहता और किंतु झट कन्हाई ने
नाम ले-लेकर की पुकार बलभाई ने,
पशु हुंकार कर हर्षित हो बोले।
दौड़ने से उनके मध्य मुंज-वन डोले।
किंतु पथ पाते नहीं पशु हुंकारते हैं।
बालक-मुंज मध्य चले-चलते पुकारते हैं।
पशु मिले हर्षित हुए बालक चिंता मिटी,
लेकिन मुंजवन में ये लपटें! हैं क्यों उठीं?
ओह! यह कृत्यानल कदर्य कंस का पला।
आसुर अग्नि आया है- देगा सबको जला?
मेरी भी भृकुटी कठोर नहीं मानता?
अग्नियों के परमाध्यक्ष मुझको नहीं जानता।