सिर घूमा देख लिया कहाँ पड़ी लकुटी।
पीठ सहलाता बोला- 'रो मत कनूँ मेरे!
गायें अभी लाता हूँ देख यहाँ मैं घेरे।
तनिक तू चुप हो जा- लकुट लिये जाता हूँ।
जहाँ तक भी वन है- पूरा ढूँढ़ लाता हूँ।
कितनी भी गयीं हों दूर लेकर ही आऊँगा।
गायें लौटाकर तुझे मुख दिखलाऊँगा।'
'नहीं, तू अकेला नहीं। लकुट दे मेरे हाथ।
हम सब चलेंगे सखा भद्र अब तेरे साथ।'
पलभर में सबने लकुट उठा लिये।
भद्र चल पड़ा है अवनि पर दृष्टि दिये।
[जीवाचार्य आद्य अनन्त अनुगामी हैं!
कैसा आश्चर्य आश्रित हैं- जो सबके स्वामी हैं!
भद्र की प्रतिभा- सरस्वती क्षमा करें,
कृष्ण-सखा समता कहाँ-भोले ये स्वयं रहें।]
'देखो सब-गोबर यह अभी का है पड़ा।
गरम है, सूखा नहीं, पड़ा नहीं पपड़ा।
यह रही गोमूत्र-रेखा, तृण यहाँ कुचला।
गये हैं इधर ही पशु संशय कहाँ भला।
अरुणा ने अंग खुजलाया यहाँ सविशेष,
वृक्ष में ये रोम उसके दीखते हैं विशेष।
खुरों से वृषभ ने किसी यहाँ रज उठायी।
मिट्टी खुदी है, रज तृणों पर छायी।
यहाँ सब कूदे हैं, दौड़े हैं, भागे हैं।
तृण कैसे कुचते हैं, वृषभ ही आगे हैं।
उनके खुरों के चिह्न गोखुर से मिटते।
अभी हम पहुँचते हैं उन तक।' सब सिमटे-
भद्र के पीछे चले आते हैं- भागे।