'भैया भद्र! अपने करेंगे अब क्या भला।
कुटिल नियति को व्रज का वैभव खला!
गायें गयीं, वृषभ गये- पशु गये सब।
सद्यः प्रसूता शेष गोष्ठ में जो अब।
उतने से व्रज का बनेगा क्या भला।
गोप क्या करेंगे? क्या गोपियाँ अबला।
अब क्या बाबा हम सबके सेवक बनेंगे?
किसी सम्पन्न की सेवा जा करेंगे?
कोई कहेगा नहीं हम सबको कुछ भी।
कैसे दिखलावेंगे उनको मुख हम भी।
ब्रज का धन गो-धन हाय हमने विलुप्त किया।
माता-पिता को यही सुख मिलकर दिया!
मैया व्रजेश्वरी, मैया श्रीदाम की-
दासी बनेंगी कहीं- सहेंगी आज्ञा काम की?
बाबा व्रजराज अब आज्ञा सुनेंगे?
कैसे क्या होगा- कौन क्या-क्या करेंगे?
उजड़ेगा आज नन्दपुर-वृषभानुपुर?
जीविका के लिये स्वजन होंगे परस्पर दूर?
हम सब मिलेंगे नहीं परस्पर अब कहीं?
यही हमारी नियति निश्चित क्या हो रही?'
हिचकियाँ लेते हैं- काँपता पूरा शरीर-
[सहा नहीं जाता] भद्र! हाय! वीर!
सहसा प्रबुद्ध भद्र-दृढ़ हुई भृकुटी।