एक साथ राम-श्याम, श्रीदाम मणिभद्र,
सुबल, मधुमंगल भी और उठे झट भद्र।
कदम्ब की ऊँची शाखाओं पर पहुँचकर -
बालक दूर तक देखते हैं इधर-उधर।
हाथ से दक्षिण उड़ाते हुए पीतपट,
उच्चस्वर पुकारते हैं आतुर मयूर-मुकुट -
'कामदा! कपिला! नन्दा! अरुणा कहाँ हो?
धर्म! आनन्द! गौरव! बोलो भी जहाँ हो!'
बार-बार अधरों से शृंग लगा फूँकते हैं!
ऐसे पुकारते हैं- व्याकुल से हूकते हैं!
[पशुओं को पुकारते हैं नाम ले-लेकर।
व्याकुल ये देखते हैं अहो अखिलेश्वर।
इनको पुकारते हैं मुझसे महर्षिगण।
युग-युग से, तपो-निरत तापस, योगीजन।
श्रुतिका सस्वर स्तवन सुनकर भी रहते मौन-
पशुओं को पुकारते यहाँ धन्य देसी धरा कौन।]
यह क्या? उतर आये बालक विषाद-ग्रस्त-
इतना मलीन मुख- [शशि ज्यों दिवस-अस्त।]
आज क्या रुदन-दिवस? हृषीकेश रोते हैं?
अश्रुधार चलती है-कपोल दोनों धोते हैं।
भद्र ने लगा लिया अपने हृदय से।
रो रहा वह भी है किंतु साथ भय से।
नित्य सर्वज्ञ, सकलेश्वर और यह कातर वाणी-
[सम्मोहित होगा ही माया-मुग्ध क्षुद्र प्राणी।]