'अधिकार कैसा सखाओं में किसका?
हम सब समान ही हैं, करो जो जी जिसका।
किंतु मुझे अपना रखो, अपने साथ रहने दो।
कुछ मैं कह लूँ तो भैया, मुझको भी कहने दो।
दुर्बल हूँ तुम सबसे - मुझको है स्वीकार
सदा सर्वत्र तुम सबसे मेरी हार।'
'अच्छा उठ!' शान्त हुआ जैसे ही यह विवाद
ओह! आ पड़ा यह पुनः कैसा विषाद?
अर्जुन, विशाल, ऋषभ, बालक वरूपथ -
भागे दौड़े हाँफते गोपाल बाल यूथप -
आये हैं, एक स्वर चिन्ताग्रस्त-
[मुखश्री हा इतनी अस्त?]
'दादा! कनूँ! अपनी सब गौएँ कहीं नहीं।
आसपास एक भी तो दीखती नहीं कहीं।
ढूँढ़ लिये हमने सब समीप के सघन कुञ्ज,
वृक्षपुञ्ज,
सुनती हुंकार की भी न है कोई गूँज।
कनूँ! कदम्ब पर चढ़कर नेक टेर तू।
श्रृंग बजा! दाऊ दादा - ऊँचे चढ़ हेर तू।
कन्हाई की टेर सुन दौड़ी सब आयेंगी -
नहीं तो हम सबको बहुत भटकायेंगी।'