नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
57. सुबल-दधि-दान
लड़कियों को ढोंग करना बहुत आता है। अभी तो सब इधर-उधर देख रही थीं, वन में देखती थीं और रुक-रुककर परस्पर कुछ कहती थीं और अब हमारा वृषभ दीख गया तो सीधे सिर झुकाये चल पड़ी हैं, जैसे सचमुच इन्हें कहीं जाना है। लड़कियाँ पहुँची दानों पर्वतों के मध्य तो श्याम उठकर खड़ा हो गया। इसने ताली बजा दी। भद्र सखाओं का समूह लेकर पीछे पहुँच गया और श्याम इन सबों के सामने मार्ग रोककर दोनों कर कटि पर रखे खड़ा हो गया है। 'हमको जाने दो! मार्ग क्यों रोकते हो?' चन्द्रावली बोलती तो बहुत दृढ़ता से है। 'तुम सब कहाँ जा रही हो?' कन्हाई भी दृढ़ स्वर में पूछता है। 'कहीं जायें, तुम्हें क्या करना है?' 'यह वन हमारा है। इसमें-से कुछ बेचने जाना है तो हमारा कर देकर जाओ!' कनूँ को भी कितनी युक्तियाँ आती हैं- 'विक्रय की वस्तु पर कर देना पड़ता है!' 'वन कब से तुम्हारा हो गया?' चन्द्रावली के नेत्र निकालने से श्याम क्या डरने वाला है। वह कहती है- 'व्रज में तो गोरस-विक्रय पर कर लगते सुना नहीं।' 'वन मेरा है या नहीं, वृषभानु बाबा से जाकर पूछ लेना!' मुझे हँसी आ गयी। यह कनूँ अपने बाबा का नाम नहीं लेता। अब मेरे बाबा से कोई क्या पूछेगा। पहिले से पता है कि पूछने पर वे तो कह देंगे ही कि- 'वन, गोष्ठ, गायें और हम भी सब व्रजराजकुमार के हैं।' 'कर लगता है। मैंने लगाया है। तू बहिरी तो है नहीं। नहीं सुना तो अब कान खोलकर सुन ले!' मोहन भी झगड़ने में कम नहीं है। 'मार्ग छोड़ो! हम कर-वर किसी को नहीं देते।' चन्द्रावली ने डाँटा- 'पता भी है, राजनन्दिनी साथ हैं। बहुत अशिष्टता मत करो, यह कहे देती हूँ। बाबा से सब कहूँगी जाकर।' 'तुझे जिससे कहना हो, कह लेना। कोई साथ हो, कर तो तुम सबको देना पड़ेगा। ऐसे मार्ग नहीं मिलेगा।' कन्हाई ने दोनों पैर फैलाकर रहा-सहा मार्ग भी रोक लिया है। अब कर लो जो करना हो। |
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