नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
57. सुबल-दधि-दान
'श्रीदाम! सखियों के साथ तेरी बहिन दही बेचने लगी है!' कन्हाई नटखट है। यह भैया को पहिले न बतलाया तो इसका कुछ बिगड़ जाता था? 'कनूँ! तू मुझे चिढ़ावेगा तो अच्छा नहीं होगा।' भैया को इससे सदा झगड़ना ही सूझता है। 'मैं चिढ़ाता नहीं हूँ। तू स्वयं शिखर पर जा कर देख ले। सुबल अभी देख आया है।' श्याम ने गम्भीर मुख बनाया- 'बुरी बात है। तेरी बहिन क्या दही बेचने योग्य है? तेरे बाबा के घर में क्या आभाव है?' भैया ने मेरी ओर देखा। मैंने सिर हिलाकर 'हाँ' कर दिया तो बिगड़कर बोला- 'आने दो इन सबों को, आज इतना डाँट पिलाऊँगा कि इसे भी स्मरण रहेगा।' कन्हाई ताली बजाकर हँस पड़ा। मैं भी हँसने लगा। भैया की दुर्बलता हम दोनों जानते हैं। श्याम ने बिना व्यंग्य के ही कहा- 'सचमुच तू बहिन को डाँट सकेगा? वह सामने आ जायेगी तो तू उससे कुछ कह भी पावेगा?' भैया संकुचित हो गया। सिर झुका लिया उसने। बहिन हम दोनों को प्राणों से प्यारी है। वह देखते ही 'भैया' कहेगी और फिर तो भैया भूल ही जायगा कि वह बहिन को डाँटना भी चाहता है। 'देख मैं बतलाता हूँ।' श्याम ने समझाया- 'हम सब यहाँ छिप जाते हैं दोनों शिखरों के पीछे और कुञ्जों में। वे सब श्वेत-श्याम पर्वतों की सँकरी घाटी में पहुँच जायँ तो कुछ सखा पीछे पहुँच जायेंगे। हम सब इनका दही खा लेंगे छीनकर तो अपने आप ये घर लौट जायँगी।' अपने घर का दही है। सब सखा खायँगे, यह सुनकर भैया प्रसन्न हो गया। केवल इतना कहा- 'मैं आगे नहीं जाऊँगा।' कन्हाई हँस गया- 'आगे तो सुबल भी नहीं जायगा। तुम दोनों को भूख न लगे तो दही भी मत खाना। मुझे तो भूख लगी है। मैं शिखर पर ऊपर से छिपकर देखता रहा। सब सखा छिप गये हमारी योजना सुनकर। सब प्रसन्न हुए। दाऊ दादा को कुछ कहना नहीं पड़ा। वह कुञ्ज में बैठा है। उसे मैं एक पूरी दहेंड़ी दे आऊँगा। अभी तो श्याम मेरे समीप पेट के बल पर्वत से चिपटा छिपा है। लड़कियाँ आ रही हैं। सबने सिर पर दहेंड़ी रखी है। सब इधर-उधर देखती आ रहीं हैं। सब हम सबों को ढूँढ़ती लगती हैं। बीच-बीच में सब खड़ी हो जाती हैं। वन की ओर देखती हैं। |
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज