नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
55. ब्रह्मा-विधि-व्यामोह
श्रुति-शास्त्र के विधि-विधान का विधाता मैं। मुझे बहुत अधिक वितृष्णा हुई। बालकों पर मुझे कुछ क्रोध भी आया। मुझे लगा कि ये अज्ञानवश ही सही, अतिशय अक्षम्य अपराध कर रहे हैं। मैं रजोगुण का अधिष्ठाता- कर्म की बाह्य शुद्धि पर मेरा पूरा आग्रह अस्वाभाविक तो नहीं है? मैं कोई और रुचिर क्रीड़ा इन कृपासिन्धु की देखना चाहता था। मेरे संकल्प की पूर्त्ति के लिए ये लीलामय भगवती योगमाया को संकेत कर चुके थे और उन महामाया ने मेरे मानस को मोहाच्छन्न कर दिया था, यह मैं उस समय कहाँ समझ सका। सहसा बछडे़ तृण-लोभ से चरते हुए वन में कुछ दूर चले गये। विषयों का प्रलोभन ही तो प्राणी को परम-पुरुष से विमुख करके भवाटवी में भटकाता है। मुझे एक उपाय सूझा, मैंने सब बछड़ों को अपनी माया से प्रसुप्त किया और वहाँ से उठकार सुमेरु की एक गुहा में सुला आया। इस दिव्य प्रदेश में किसी को कोई कष्ट नहीं होना था। बहुत शीघ्र बालकों का ध्यान अपने बछड़ों की ओर गया। उन्हें न देखकर कुछ व्याकुल हुए; किंतु श्यामसुन्दर सखाओं को आश्वासन देकर स्वयं उठ खडे़ हुए बछड़ों का अन्वेषण करने। इतना सम्मान- इतना श्रेष्ठत्व इन बालकों को प्राप्त है कि ये भोजन करते रहें और स्वयं सर्वेश्वर इनके सेवक के समान अपना भोजन अधूरा छोड़कर वन में बछडे़ ढूँढ़ने चल पड़ें? जीव सेवक है और पुरुषोत्तम सेव्य हैं, यही मैंने पढ़ा-समझा है। यही सृष्टि की पावन परम्परा है। इसमें इन अज्ञानी बालकों के द्वारा बना यह व्यतिक्रम मुझे अनुचित प्रतीत हुआ। ब्रजराजकुमार वन में जैसे ही आगे बढ़े, मैंने बालकों को भी माया-सम्मोहित किया और बछड़ों के समीप ही सुला दिया सुमेरु की गुहा में। |
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