नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
55. ब्रह्मा-विधि-व्यामोह
मेरे अपने लोक के द्वारपालों ने मुझे अपमानित-प्रताड़ित करके लौटने को विवश न कर दिया होता; पता नहीं मुझे ब्रह्मलोक में कितने क्षण लगते। मैं द्वार पर-से ही लौटा तो केवल एक त्रुटि[1] लगे थे और इतने में पृथ्वी का पूरा वर्ष प्राय: व्यतीत हो गया था। मैं ब्रह्मलोक में प्रविष्ट हो पाता तो पृथ्वी पर पुरुषोत्तम की लीला में बहुत बाधा पड़ती! इन अखिलेश्वर ने मैं ब्रह्मलोक में प्रविष्ट ही न हो पाऊँ, इसका प्रबन्ध करके मुझ पर अनुकम्पा ही की। द्वारपालों ने मुझे देखते ही वेत्र उठा लिये। उन्होंने मेरी एक नहीं सुनी। सृष्टि के परम संचालक ने मेरे स्थान पर कोई और चतुर्मुख ब्रह्मा नियुक्त कर दिया- यही मैंने समझा उस समय। मैंने पूछा भी- 'क्या कोई और ब्रह्मा अधिपति होकर यहाँ आ गये हैं?' द्वारपालों ने मेरा उपहास किया- 'कोई और क्यों आवेंगे? हमारे स्वामी स्वयं आये हैं। वे हमें सावधान कर गये हैं कि तू मायावी असुर उनका रूप बनाकर यहाँ प्रवेश का प्रयत्न करेगा! हम तेरे रूप और शब्दों के स्वर के भ्रम में नहीं पड़ने वाले हैं।' मैं समझ गया कि मैं सर्वेश्वर द्वारा पदच्युत कर दिया गया। मेरा स्वर, मेरा स्वरूप किसी को भी अपने संकल्प से ही प्रदान करने में वे समर्थ हैं। सचमुच मैं असुर तो हो ही चुका; क्योंकि मैंने श्रीकृष्ण के स्वजनों पर माया-प्रयोग की धृष्टता की। मैंने यह भी नहीं सोचा कि बछड़े एवं बालकों के प्रारब्ध में मातृ-पितृ-स्वजन-वियोग तथा उनके स्वजनों, माता-पिता के प्रारब्ध में, पुत्र-वियोग है भी या नहीं। प्राणियों के प्रारब्ध की उपेक्षा करके केवल अपने अहंकार के वशीभूत अपनी मानी मर्यादा पर दूसरों के गुण-दोष का निर्णय करके उनको अपनी इच्छा के अनुसार चलाने का प्रयत्न असुर ही तो कर सकता है। योगमाया के द्वारा सम्मोहित मैं तब भी नहीं समझ सका था कि व्रज के ये बालक- ये बछडे़ मेरी सृष्टि के हैं भी या नहीं। इनके शरीर कर्म-प्रारब्ध की परिणति नहीं हैं और इनको मेरी माया स्पर्श भी नहीं करती यदि इनके ही अधीश्वर की इच्छा का अनुमोदन न होता, यह तो मैं अब समझ सका हूँ। उस समय तो मैं अपनी भूल के सुधारने के भ्रम में शीघ्र लौट पड़ा। मुझे अपने पदभ्रष्ट होने का वैसा दु:ख नहीं था, जैसा अपनी भूल का पश्चात्ताप था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ढाई पल
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