नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
55. ब्रह्मा-विधि-व्यामोह
मानव का सम्मान? अपने मन में उठे इस अकस्मात भाव से मैं स्वयं चौंक गया। कोई कितना भी समर्थ मर्त्य हो, अघ को तो नहीं मार सकता? जीव-ज्योति का लय तो साक्षात श्रीहरि के अतिरिक्त अन्य में होना सम्भव नहीं है? असुरों का अधर्म से आक्रान्ता धरा के दु:ख से द्रवित मैंने स्वयं देवताओं के साथ क्षीरोदधि के समीप पहुँचकर प्रार्थना की थी कि प्रभु अनन्तशायी अब अवतार ग्रहण करें; क्योंकि भूमि पर आसुर बल इतना बढ़ गया है कि उसका प्रशमन अब हम सब सुरों की शक्ति में सम्मिलित शक्ति में भी नहीं रहा। मुझे अपनी समाधि में परमपुरुष की वाणी का आश्वासन प्राप्त हुआ था। प्रभु ने मेरी प्रार्थना मान ली थी; किंतु मेरे विशाल ज्ञान ने ही मुझे भ्रम में डाल दिया। श्रीहरि के चरणों का आश्रय, पुरुषोत्तम के पावन पदों में आस्था को पृथक रखकर जब बुद्धि पर बल दिया जायगा तो वैदिक विद्या भी कितना व्यामोह उत्पन्न कर देगी- यह अब मैं जान गया। द्वापर का युगावतार भगवान अनन्त हैं। उन सहस्त्रशीर्षा अनन्त पराक्रम की अचिन्त्य शक्ति से प्रशमित न हो सके, ऐसी कोई आसुर-सामर्थ्य सम्भव नहीं; किंतु यह जीव-ज्योति का विलय- भगवान अनन्त परमाचार्य हैं प्राणियों के; किंतु प्राणी का विलय तो अपने में वे स्वीकार नहीं करते? मैं देख रहा था कि वे स्वर्णगौर एक कुण्डली आज वन में नहीं आये हैं। आज वे नन्दभवन को ही अलंकृत कर रहे हैं। इसका अर्थ है कि ये नवघनसुन्दर श्रीहरि साक्षात हैं और धरा पर अनुकम्पा करके अग्रज के साथ आ गये हैं। मैंने अपने सृष्टि-कर्म में संलग्न रहने के कारण इन सौन्दर्य-सिन्धु की कोई क्रीड़ा का दर्शन नहीं किया। इन आनन्दघन की रुचिर क्रीड़ा के दर्शन का सौभाग्य इनके दिव्यधाम में पहुँचकर प्राप्त करने का अधिकार तो केवल उन्हें मिलता है, जिनको ये स्वयं अपना परिकर स्वीकार कर लेते हैं। सुरों को मुझे भी यह सुअवसर तो इनके पृथ्वी पर पधारने पर ही प्राप्त होता है। मैंने इनको अघासुर के मुख में प्रवेश करते भी नहीं देखा था। अपूर्ण ही लीला देखी अघोद्धार की। अत: मेरा अन्तर उद्वेलित हुआ- 'कोई सम्पूर्ण रुचिर क्रीड़ा देखकर मेरे नेत्र धन्य हों!' |
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