नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
54. कालिन्दी-वन-भोजन
मस्तक पर मयूरपिच्छ घुँघराली अलकों में लहराने लगा है। अलकें सूख गयी हैं। भाल पर न तिलक है, न दृगों में अञ्जन। कपोल-पल्ली के समीप मणि-कुण्डल झूल रहे हैं। कण्ठ में कौस्तुभ है, मुक्तामाल है; किंतु वनमाला नहीं है। कन्धे पर पटुका है। रत्नांगद-भूषित भुजाएँ, कलाइयों में कंकण, कटि में कछनी पर रत्नमेखला, चरणों में स्वर्णनूपुर, कछनी में दक्षिण भाग में मुरली लगी है और वाम कक्ष के नीचे श्रृंग तथा वेत्र-लकुट दबा रखे हैं। वाम कर की हथेली पर दधि-भात का उज्ज्वल ग्रास है और अँगुलयों के सिरों पर, सन्धियों में अचार-चटनी ने स्थान पाया है। ये विश्वम्भर भोजन करने बैठे हैं। दक्षिण कर से तनिक-सा उठाते हैं और मुख में डालते हैं। अरुणाधर दधि से उज्ज्वल हो गये हैं। गोप-बालक कोई विद्वान व्रतनिष्ठ ब्राह्मण तो नहीं हैं कि मौन होकर चुपचाप बैठकर भोजन करेंगे। इनमें कोई भी उठकर इन नवघनसुन्दर के समीप आ जाता है और सीधे अपने हाथ से इनके मुख में ग्रास देता है- 'मुख खोल! देख तो सही कितना कोमल मधुर पुआ बनाया है मेरी माँ ने। ये कभी भी किसी के भी मुख में कर का ग्रास हाथ से उठाकर देने झुक पड़ते हैं। इनके हाथ का ग्रास परिवर्तित हो रहा है। एक को उठाकर किसी के मुख में देते हैं तो कोई दूसरा मित्र अपनी रुचि का पदार्थ वहाँ रख देता है। अनेक सखा अपने कर से ही इनके मुख में ग्रास देते हैं। 'तेरा मोदक तो मीठा नहीं और कठोर भी है।' किसी को भी चिढ़ा देना है मुख बनाकर- 'तेरा दही तो खटृा है!' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज