नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
50. विशाखा-परिचय
'सखि! यही तो अत्यन्त दु:ख है मुझे कि मैं सबके द्वारा तिरस्कारणीया हो गयी हूँ और कोई भी मेरा तिरस्कार नहीं करता।' क्रन्दन करते मेरी सरला सखि ने कहा- 'देह-त्याग के अतिरिक्त दूसरा मार्ग नहीं है मेरे लिए। मैं प्रतिक्षण असह्य दावाग्नि में दग्ध हो रही हूँ। तू मुझ पर दया नहीं करेगी?' 'तू कुछ कह तो सही!' मैं अपना हृदय निकालकर देना होता तो उसी क्षण दे देती। अपनी इस सखि का रुदन देखने से मृत्यु सहस्त्र गुनी सुखद लगेगी मुझे। 'अच्छा तू सुन! बहुत लज्जा आती है; किंतु तुझसे न कहूँ, ऐसी तो कोई बात नहीं है। कम-से-कम तू तो साक्षी रह कि तेरी राधा कितनी विवशा बन चुकी थी।' कीर्तिकुमारी ने कहना प्रारम्भ किया- 'उस दिन भैया सुबल मुझे नन्दीश्वरपुर ले गया। मैं संकोच वश भवन के द्वार से सटी खड़ी रह गयी। सुबल के कहने पर उसके वे नीलसुन्दर सखा दौड़ते आये और आकर मेरा हाथ पकड़ लिया। वह कर-स्पर्श जैसे मेरे रोम-रोम में उसी क्षण से बसा है। लगता है कि मेरा कर अब भी उनके ही करों में है।' 'बस?' मैं हँस पड़ी- 'इसीलिए तू इतनी व्याकूल है? बाबा से मैं न भी कहूँ तो भी वे तेरा विवाह अपने मित्र व्रजराज के कुमार से ही करने वाले हैं। तू रोती क्यों है?' 'मेरा विवाह उनसे?' मेरी सखी कितनी भोली है, जानती हूँ। कहने लगी- 'तूने कहाँ देखा उन्हें विशाखा। वे सौन्दर्य के भी अधिदेवता हैं। राधा उनके पदों के पास भी बैठने योग्य नहीं है। लेकिन मैंने उसी दिन देख लिया कि वे कितने सदय हैं। मेरा इतना अधिक सम्मान किया उन्होंने, मुझे इतने स्नेह से साथ लिये रहे, उनके सद्गुण-शील को देखकर मुझे आशा हो गयी थी कि वे अपनी ओर देखकर, अपनी कृपा के कारण ही मुझ अनधिकारिणी को अस्वीकार नहीं करेंगे।' 'उन्होंने अस्वीकार कर दिया?' मैं चौंकी। मेरी इस सौन्दर्य की देवी- जैसी सखी को भी कोई अस्वीकार कर सकता है? 'उनसे भी तुझे ऐसी आशा है?' सखि रो रही थी- 'नहीं विशाखे, मैं जानती हूँ कि उनका हृदय नवनीत से अधिक सुकुमार है। उनसे किसी के प्रति भी निष्ठुरता सम्भव नहीं। मेरा तो उन्होंने स्वयं कर पकड़ा था। मुझे सानुरोध बार-बार बुलाया था। मैं ही भाग्यहीना हूँ। उनके योग्य मैं नहीं रही!' 'तुझे क्या हो गया?' मैंने कठिनाई से मूर्च्छिता सखि को सचेत किया। |
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