नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह'चक्र'
50. विशाखा-परिचय
'तू कृष्ण से विवाह करेगी?' मैं खुलकर हँस पड़ने से अपने को किसी प्रकार ही रोक सकी। 'तू विवाह की बात करती है?' मुझे तो मरने के अतिरिक्त कोई परित्राण का पथ नहीं दीखता। ये दो ही होते तो भी कुछ बात थी; किंतु- 'कोई तीसरा भी है क्या?' मैंने तनिक सशंक पूछा। इस अत्यन्त सीधी सखि के मन में क्या आ गया? 'यह वंशी-ध्वनि तू नहीं सुनती?' सखि की बात सुनकर मेरा मन आश्वस्त हो गया। अब उसकी हिचकियाँ मेरे लिए विनोद-दायिनी बन गयी थीं- 'वह ध्वनि आती है श्रवणों में और जी चाहता है कि दोड़ी जाऊँ और उसके वादक के पदों पर मस्तक रख दूँ। उस समय मैं उसकी- केवल उसकी रह जाती हूँ। अब यह तीन पुरुषों के प्रति मेरी आसक्ति- तू मुझे धिक्कारती क्यों नहीं? तू ऐसे क्यों देख रही है मेरी ओर? तू तो हँस रही है?' 'मैं तीन को दो तो अभी कर देती हूँ।' मैंने हँसकर कहा- 'ललिता सायंकाल वन से वत्स-चारण करके लौटते उस वंशीवादक कृष्ण का आज ही तुझे दर्शन करा देगी।' 'वही वंशी बजाते हैं?' सखि तनिक प्रसन्न हुई; किंतु तत्काल म्लान पड़ गयी। अपना दक्षिण कर पकड़कर चिन्ता-मग्न हो गयी- 'भैया सुबल के ये सखा!' 'वे भी वन से वत्स-चारण करके सायंकाल लौटते हैं!' मैं हास्य नहीं रोक सकती थी। उठकर भाग आयी वहाँ से। मेरी सखी कुछ समझ नहीं सकी। सायंकाल ललिता ने झरोखे में बैठाकर वत्स-चारण से लौटते, वंशी अधर से लगाये, गोधूलि-धूसर सुबल के सखा कृष्ण को दिखलाया तो मेरी सखि दृष्टि पड़ते ही मूर्च्छित हो गयी है। अब उसे मैं शीघ्र सचेत कर लूँगी। मेरी चिन्ता मिट गयी है। |
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