नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
50. विशाखा-परिचय
मेरी सखी भाई के साथ चली तो गयी; किंतु लौटी तो लगा कि कुछ दूसरी ही हो गयी। वृषभानु बाबा की नन्दिनी ऐसी अनमनी तो कभी नहीं रही थी। इसी को सुप्रसन्न करने के लिए हम सब इसके साथ छोटी कलशियाँ लेकर जल-भरने नन्दग्राम पनघट पर जाने लगीं। वहाँ नन्दग्राम के सब बालक बहुत नखखट हैं। हमारे दोनों भाई भी उनसे मिलकर वैसे ही हो गये, अन्यथा ये तो हम बहिनों को बहुत मानते थे। लेकिन सब बालकों में वे नवघन सुन्दर- वे कुछ करें, कितना भी चिढ़ावें, कलशियाँ लुढ़का दें अथवा फोड़ डालें- उनका वह हास्य, वह ललित रूप- वह तो हृदय में ही बस गया है। मेरी भोली सखी उनको देखे बिना नहीं रह पाती तो इसका क्या दोष है। हम सब जीवनभर उसी पनघट पर प्रदितिन इसी प्रकार जाती रहतीं; किंतु पता नहीं व्रजराज बाबा को क्या सूझा कि अपने लाल को वत्सचारण के लिए लिए वन में भेजने लगे। वहाँ नन्दीश्वरपुर में गोपों का अभाव है क्या? मैं यहाँ अपने बाबा से कहकर बहुत-से सेवक भिजवा देती। एक ही तो उनके कुमार हैं और इस अल्प वय में उन्हें वन में बछडे़ चराने भेजने लगे। वे जाने लगे तो हमारे यहाँ के भी हमारे कोई भाई घर में कैसे टिकते। मेरी सबसे बड़ी समस्या यह है कि मेरी सखी का कमल-मुख म्लान रहने लगा। यह पाटल कलिका मुरझाने लगी। मैया, बाबा सब चिन्तित हो गये थे। मैंने भगवती पूर्णमासी के पास जाकर पूछा। भगवती हम सब बालिकाओं को अपनी पुत्री के समान स्नेह-भाजना मानती हैं। मुझे अंक में बैठा लिया उन्होंने। बड़े प्यार से कहा- 'विशाखे! अपनी सखी से ही तू पूछ। ध्यान करके उसके चित्त का स्पर्श करने में कोई योगीन्द्र-मुनीचन्द्र-मानस भी समर्थ नहीं है।' मैं इस कीर्ति मैया की कुमारी से कुछ पूछने में इसीलिए संकोच करती हूँ, इसका अपने विशाल लोचनों में अश्रु भर लेना मुझसे देखा नहीं जाता। अन्यथा यह तो इतनी भोली है कि कुछ सखियों से छिपाया भी जा सकता है, यह सोच भी नहीं सकती। लेकिन यह प्रतिदिन पीली पड़ती जा रही, कृशकाय पहिले से है- और सूखती जा रही, यह भी कैसे सहा जाता। 'विशाखे! तेरे पास कोई विष है?' मेरे पूछते ही कण्ठ से लिपटकर फफककर फूट पड़ी- 'कहीं से मुझ पर कृपा करके ला दे!' |
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