नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
49. महर्षि जाजलि-बकोद्धार
'तू कोई मछली है!' विशाल हँसने लगा। इन बालकों को कैसे पता लगेगा कि उनका यह सखा सचमुच मत्स्य भी है। इतना बड़ा महामत्स्य कि प्रलय-पयोधि भी उसके बिहार से व्याकुल हो उठा था। उस मत्स्य को मुख में ले सके ऐसा बक सृष्टि समुत्पन्न नहीं कर सकती- सृष्टिकर्त्ता का समस्त कौशल भी नहीं; किंतु इनकी मत्स्यों से सहानुभूति सजातीय के प्रति स्वाभाविक है। 'तेरा पटुका अपवित्र हो गया।' मधुमंगल को अपना ब्राह्मणत्व स्मरण आ गया- 'यह कन्हाई तो बगुले के मुख में जाकर समूच्छा उच्छिष्ट हो गया। तुम सबने इसको स्पर्श किया है, अत: स्नान करो और ब्राह्मण को कुछ दान करके शुद्ध बनो।' 'अच्छा महाराज!' सबसे छोटा तोक मुझे अत्यन्त प्रिय लगता है। कितना पटु है यह अभी से अभिनय करने में। दोनों हाथ जोड़कर मस्तक झुकाकर कैसी कृत्रिम विनम्र मुद्रा बना ली इसने- 'अपने अग्रज द्वारा किया गया यह आखेट-बुगले के समुचे दोनों खण्ड, उसके पैर, पंख चोंच सब मैं आपको समर्पित करता हूँ।' 'छि:!' मधुमंगल मुख बनाकर मुड़ गया हट जाने के लिए। सब हँस रहे हैं। हँस रहे हैं ये हृषीकेश मेरे शाप को वरदान बनाकर, मेरे सम्मुख ही सखाओं के मध्य खडे़ होकर। |
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